युवा की पाश्चात्य सोच : 🕺
युवा की पाश्चात्य सोच……!
●●●●●●●●●●●●●●●●●●
पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होना और उसका अनुसरण करना आज कल के युवाओं का चलन सा बन गया है। यह पूरी तरह गलत भी नहीं है। एक दूसरे की संस्कृति को अपनाना एक अच्छा संकेत है। जो अपनत्व बढ़ाता है। लेकिन इस लेन देन की आड़ में , जिस पतन की ओर हम अपनी संस्कृति को ले जा रहें है
●●●●●●●●●●●●●●●●●●
पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होना और उसका अनुसरण करना आज कल के युवाओं का चलन सा बन गया है। यह पूरी तरह गलत भी नहीं है। एक दूसरे की संस्कृति को अपनाना एक अच्छा संकेत है। जो अपनत्व बढ़ाता है। लेकिन इस लेन देन की आड़ में , जिस पतन की ओर हम अपनी संस्कृति को ले जा रहें है
एक समय पश्चात उसका नामोनिशान भी नज़र नहीं आएगा। रोजमर्रा की जिंदगी में ही देखिये ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जायेंगे जो ये दर्शाते है की युवा वर्ग अपनी भारतीयता की असल पहचान खो रहा है। अंग्रेज़ियत का प्रभाव तो इस कदर हावी होता जा रहा है की कुछ दिनों बाद शायद शब्दों या वाक्यों की जगह संक्षेप ले लेंगे। जो की सिर्फ दो या चार अक्षरों में पूरी बात कह देंगे। उदाहरणार्थ as soon as possible { जितनी जल्दी हो सके } के लिए इतना ही लिखना काफी होगा asap . अंग्रेजी का your अब ur और doing अब doin , going अब goin और brother/bro , sister/sis बन कर रह गए है।
इस के लिए किसे जिम्मेदार माना जाये समय की कमी , पाश्चात्य का प्रभाव या खुद को अलग दिखाने की कोशिश। लेकिन इस से संबधो में प्यार बढाने वाले शब्दों भावनाओं और एहसासों को कुचला जा रहा है। प्यार शब्दों का मोहताज नहीं पर बिना प्रार्थना के तो भगवान भी नहीं सुनते तो प्रेम के इज़हार के लिए शब्द तो चाहिए ही। जीवन में हम जितना भी समय लिखा कर लाते है पूरा ही जीते है इस तरह के कार्य से क्या दूसरे कार्यों के लिए हम समय बचाने का प्रयास करते है ?
पाश्चात्य का प्रभाव यही तक नहीं है। पहले सब एक साथ मिल कर उत्सव मनाने को सम्मलेन या त्यौहार कह कर बुलाते थे आज वही पजामा पार्टी में बदल गया है ये सब पतन नहीं तो क्या है ? इस सब के लिए कुछ हद जिम्मेदार फ़िल्में भी हैं जो इस हद तक युवा सोच पर प्रभाव डालती है की उसके अनुसरण के लिए उसे बाध्य होना पड़ता है। गानों के अश्लील शब्दों को आज छोटे से छोटा बच्चा भी इस तरह जीवन में ढाल लेता है की सुन कर शर्मिंदगी के सिवा कुछ भी हाथ नहीं लगता। भला कैसे हम संस्कारों का पुलिंदा अपने बच्चों के कन्धों पर रखें जबकि उनके कंधे पहले से ही इस घृणित सोच और आचरण से झुके हुए है। वह बातें या जो संस्कार समयनुसार बच्चे को जानने को मिलता था वह आज की फ़िल्में और उनके अश्लील गाने पहले ही सीखा देते है इसी सब से समाज बदलने लगा है फिल्मों सा जीवन जीने की चाहत और उसका अनुसरण गर्त में ले जा रहा है। हम पाश्चात्य की तरह नहीं जी सकते।
भारतीय समाज के जो भी नियम कायदे कानून है उन्ही ने इस की पहचान को मिटने नहीं दिया। वर्ना आज हम भी liv-in-realationship को आम कर विवाह जैसी पवित्र परंपरा को खो चुके होते। और फिर इस से उत्पन्न औलादों को किस श्रेणी में रखते ? ऐसे हजारों सवाल है जो बदलती सोच के कारण खड़े हो रहें हैं। जिस का जवाब युवा पीढ़ी के पास नहीं है। विद्यालयों में भी अब वह संस्कारी माहौल कहाँ रह पाया है सिर्फ गन्दगी और राजनीती। यही चेहरा है आज की पीढ़ी का। इसे तत्काल बदलने की जरूरत है वर्ना यह मानना की कलयुग के अंत के बाद सतयुग आएगा सत्य हो जायेगा।
एक अच्छे समाज को बनाये रखने के सारे नियमों के ख़त्म होने के बाद समाज के बने रहने की कल्पना व्यर्थ है। रिश्ते , नाते ,दोस्ती सब सतही और बेमानी हो जाएगी। जरूरत है फिर से बस एक बार पीछे मुड़ कर उसको थोड़ा सा अपनाने की यकीन कीजिये खाली हाथ नहीं रहेंगे। समय बहुत कुछ देगा , धैर्य रखे और पालना करें।
◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆
Comments
Post a Comment