मन के हारे हार है मन के जीते जीत…………
ये समाज आर्थिक रूप से तीन वर्गों में बटा हुआ है। उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग। हर वर्ग के जीने का तरीका उनकी संपत्ति के हिसाब से निर्धारित होता है। वह सुविधाओं को जुटा कर लोगो के बीच अपना स्तर मान बढाने का प्रयास करते है। आज हर वर्ग अपने से ऊँचे वर्ग से आकृष्ट होकर, उसकी तरह जीवन गुजारने के चक्कर में उन तमाम परेशनियों को मोल ले लेता है जो टालने योग्य होती है। सुविधाओं के बढ़ते जाल में आज का मानव इस कदर उलझ चुका है की इन के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। अब प्रश्न ये उठता है कि शरीर को इस हद तक सुविधाओं का आदी बना देना क्या उसके साथ अन्याय नहीं है ?अपने जीवन स्तर को बढ़ाना कोई अपराध नहीं पर उस स्तर का आदी हो जाना अपने शरीर के प्रति अपराध है। इसी आदीपन का शिकार हो कर कुछ समयोपरांत ये अनेकों रोगो को भी न्यौता दे बैठता है। जीवन में जरूरी है की हम अपने कार्यों को करने के लिए एक बेहतर माहौल बना कर रखे जो कम से कम मेहनत और समय में हमे अच्छे परिणाम दें। लेकिन यह कत्तई जरूरी नहीं की उसके लिए हमें आधुनिक सुविधाओं का मोहताज होना पड़े। इसका असर हमारे शरीर और आदतों दोनों पर ही प्रतिकूल पड़ता है। खुद को समाज में स्तरीय बनाए रखने के लिए उन तमाम सुविधाओं का जुगाड़ हम कैसे भी कर के करते है चाहे उसकी क्रय क्षमता हमारी पहुँच से बाहर हो , उसके लिए इधर उधर से धन अर्जित करने में भी नहीं हिचकते। आज कल बैंक भी अनाप शनाप ऋण देने में आगे रहते हैं जिससे यह रास्ता और आसान सा हो गया है की ऋण लो सुविधाएँ जुटाओ। इस प्रयास में हम कितनी दूसरी जरूरतों का खून करते है जो प्राथमिकता की श्रेणी में पहले आती होगीं।
सबसे पहले अपने शरीर की मांग को ध्यान में रखना चाहिए। जो जीवन शैली हम अपना रहे हैं उसमे पहली प्राथमिकता शरीर का स्वास्थ्य है जो कही खो सा गया है सुविधाओं का आदि हो कर हाथ और पैर भी कम चलने लगे हैं। आज हम चार कदम पैदल चलने में थकान महसूस करने लगते हैं यह अच्छे लक्षण नहीं हैं। लेकिन इस आदीपन का एक यही प्रतिकूल प्रभाव नहीं बल्कि इस का सबसे बड़ा असर आने वाली पीढ़ियों पर पड़ रहा है युवा पीढ़ी मोबाइल , गाड़ी ,और तमाम दूसरी मशीनी सुविधाओं के बिना जीना लगभग भूल ही चुकी है क्या दादी नानी के समय मिक्सी नहीं थी तो मसाले नहीं पिसते थे या फ्रिज नहीं था तो वह ठंडा पानी नहीं पीते थे ? जीवन के लिए बेहतर उपायों का इन्तेजाम उन्हों ने भी किया था पर उस में प्राकृतिक गुण के साथ साथ शरीर की भी जरूरतें पूरी होती थीं। पेड़ों की ठंडी छावों में सोना , मिटटी के मटकों में रखा पानी पीना ,चुल्हों पर खाना पकाना,और हैंड पाइप या कुओं के जरिये पानी खीचना यह सब दैनिक जरूरतों के साथ उनका स्वास्थ्य बेहतर बनाये रखने में भी मदद करती थी। कमाल की बात यह की इसी जीवन की झलक अगर आप को किसी पांच सितारा होटल में भारी कीमत चुका कर देखने को मिलेगी तो वहां जरूर जा कर ऐसी जिंदगी का लुत्फ़ लेना पसंद करेंगें। लेकिन उसे रोजाना की जिंदगी में शामिल नहीं करना चाहेंगे। यदि हम बदलाव के लिए ऐसा करते है तो यह बदलाव सकारात्मक हो सकता है बशर्ते इसे पलट दिया जाये। अर्थात रोज़ आप सामान्य जीवन जीयें यदा - कदा ऐसे आयोजनों में जाकर मनोरंजन अपना ले। ईश्वर ने जिस शरीर की सौगात बख्शी है उसे उसके खुद के दम पर चलने लायक बनाये रखें। सुविधाएँ आराम के लिए तो है पर उन्हें भी कुछ आराम दें। ताकि आपका शरीर काम कर सके। व्यायामशाला में हजारों खर्च कर अपनी सेहत बनाने से बेहतर है की इन सुविधाओं के बिना जी कर देखें स्वास्थ्य अपने आप सुधर जायेगा।
उच्च वर्ग की तर्ज़ पर माध्यम वर्ग का यह रवैया उचित नहीं है। जीवन संघर्ष का नाम है और यही संघर्ष उसे विपरीत परिस्थितियों से लड़ना सीखता है। यह लड़ाई सकारात्मक तभी होगी जब शरीर और मन इसे पूरे जोश से अंजाम देगें। बालकपन से वृद्धावस्था तक हर पल एक नई चुनौती का सामना करना पड़ता है। सबसे पहले मन को प्रस्तुत किया जाए की वह इस चुनौतीओं का सामना करने के लिए शरीर को राजी करे। कहते है न की.………… मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
ये समाज आर्थिक रूप से तीन वर्गों में बटा हुआ है। उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग। हर वर्ग के जीने का तरीका उनकी संपत्ति के हिसाब से निर्धारित होता है। वह सुविधाओं को जुटा कर लोगो के बीच अपना स्तर मान बढाने का प्रयास करते है। आज हर वर्ग अपने से ऊँचे वर्ग से आकृष्ट होकर, उसकी तरह जीवन गुजारने के चक्कर में उन तमाम परेशनियों को मोल ले लेता है जो टालने योग्य होती है। सुविधाओं के बढ़ते जाल में आज का मानव इस कदर उलझ चुका है की इन के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। अब प्रश्न ये उठता है कि शरीर को इस हद तक सुविधाओं का आदी बना देना क्या उसके साथ अन्याय नहीं है ?अपने जीवन स्तर को बढ़ाना कोई अपराध नहीं पर उस स्तर का आदी हो जाना अपने शरीर के प्रति अपराध है। इसी आदीपन का शिकार हो कर कुछ समयोपरांत ये अनेकों रोगो को भी न्यौता दे बैठता है। जीवन में जरूरी है की हम अपने कार्यों को करने के लिए एक बेहतर माहौल बना कर रखे जो कम से कम मेहनत और समय में हमे अच्छे परिणाम दें। लेकिन यह कत्तई जरूरी नहीं की उसके लिए हमें आधुनिक सुविधाओं का मोहताज होना पड़े। इसका असर हमारे शरीर और आदतों दोनों पर ही प्रतिकूल पड़ता है। खुद को समाज में स्तरीय बनाए रखने के लिए उन तमाम सुविधाओं का जुगाड़ हम कैसे भी कर के करते है चाहे उसकी क्रय क्षमता हमारी पहुँच से बाहर हो , उसके लिए इधर उधर से धन अर्जित करने में भी नहीं हिचकते। आज कल बैंक भी अनाप शनाप ऋण देने में आगे रहते हैं जिससे यह रास्ता और आसान सा हो गया है की ऋण लो सुविधाएँ जुटाओ। इस प्रयास में हम कितनी दूसरी जरूरतों का खून करते है जो प्राथमिकता की श्रेणी में पहले आती होगीं।
सबसे पहले अपने शरीर की मांग को ध्यान में रखना चाहिए। जो जीवन शैली हम अपना रहे हैं उसमे पहली प्राथमिकता शरीर का स्वास्थ्य है जो कही खो सा गया है सुविधाओं का आदि हो कर हाथ और पैर भी कम चलने लगे हैं। आज हम चार कदम पैदल चलने में थकान महसूस करने लगते हैं यह अच्छे लक्षण नहीं हैं। लेकिन इस आदीपन का एक यही प्रतिकूल प्रभाव नहीं बल्कि इस का सबसे बड़ा असर आने वाली पीढ़ियों पर पड़ रहा है युवा पीढ़ी मोबाइल , गाड़ी ,और तमाम दूसरी मशीनी सुविधाओं के बिना जीना लगभग भूल ही चुकी है क्या दादी नानी के समय मिक्सी नहीं थी तो मसाले नहीं पिसते थे या फ्रिज नहीं था तो वह ठंडा पानी नहीं पीते थे ? जीवन के लिए बेहतर उपायों का इन्तेजाम उन्हों ने भी किया था पर उस में प्राकृतिक गुण के साथ साथ शरीर की भी जरूरतें पूरी होती थीं। पेड़ों की ठंडी छावों में सोना , मिटटी के मटकों में रखा पानी पीना ,चुल्हों पर खाना पकाना,और हैंड पाइप या कुओं के जरिये पानी खीचना यह सब दैनिक जरूरतों के साथ उनका स्वास्थ्य बेहतर बनाये रखने में भी मदद करती थी। कमाल की बात यह की इसी जीवन की झलक अगर आप को किसी पांच सितारा होटल में भारी कीमत चुका कर देखने को मिलेगी तो वहां जरूर जा कर ऐसी जिंदगी का लुत्फ़ लेना पसंद करेंगें। लेकिन उसे रोजाना की जिंदगी में शामिल नहीं करना चाहेंगे। यदि हम बदलाव के लिए ऐसा करते है तो यह बदलाव सकारात्मक हो सकता है बशर्ते इसे पलट दिया जाये। अर्थात रोज़ आप सामान्य जीवन जीयें यदा - कदा ऐसे आयोजनों में जाकर मनोरंजन अपना ले। ईश्वर ने जिस शरीर की सौगात बख्शी है उसे उसके खुद के दम पर चलने लायक बनाये रखें। सुविधाएँ आराम के लिए तो है पर उन्हें भी कुछ आराम दें। ताकि आपका शरीर काम कर सके। व्यायामशाला में हजारों खर्च कर अपनी सेहत बनाने से बेहतर है की इन सुविधाओं के बिना जी कर देखें स्वास्थ्य अपने आप सुधर जायेगा।
उच्च वर्ग की तर्ज़ पर माध्यम वर्ग का यह रवैया उचित नहीं है। जीवन संघर्ष का नाम है और यही संघर्ष उसे विपरीत परिस्थितियों से लड़ना सीखता है। यह लड़ाई सकारात्मक तभी होगी जब शरीर और मन इसे पूरे जोश से अंजाम देगें। बालकपन से वृद्धावस्था तक हर पल एक नई चुनौती का सामना करना पड़ता है। सबसे पहले मन को प्रस्तुत किया जाए की वह इस चुनौतीओं का सामना करने के लिए शरीर को राजी करे। कहते है न की.………… मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
Comments
Post a Comment