माँ बनने का वैद्य और अवैद्य वर्गीकरण ……! 

माँ ………कितना मीठा शब्द है ये, जिसमे पूरी दुनिया के सुख समाये हैं । कोख में संतान का अंश पड़ने से लेकर उसके जन्म तक जिस गर्व की अनुभूति एक माँ करती है वह अकल्पनीय है।  शायद इसी में एक सृजनकर्ता होने का एहसास और कुछ ऐसे निर्माण का सुख है जिसमें नौं माह गर्भ में रख कर उसने गढ़ा है । माँ ....... गर्भ नाल के जरिये जुड़ी संतान को जन्म देने के बाद अलग कर के भी जीवन भर उससे जुड़ी  रहती  है। क्योंकि वह उसे अपनी कृति मानती है।लेकिन यह सोचने का विषय है कि यही माँ बनने का सुख और सौभाग्य अलग अलग परिस्थितियों में वरदान या श्राप क्यों बन जाता है ? क्या कोख का प्रबंधन भी इन परिस्थितियों से प्रभावित होता है ?
                          यदि स्त्री विवाहित है ,उसने बाकायदा समाज के सामने सात फेरे ले कर विवाह किया है। जिस में समाज की सहमति और आमंत्रण है उस परिस्थिति में उसकी संतान हर उस सम्मान की हक़दार है जो एक आम आदमी को मिलना चाहिए।  लेकिन यदि यह संतान उसके साथ हुए किसी दुराचार से जन्मी है तब वह अवैध मानी जाएगी।  अब सोचने का विषय यह है कि गर्भधारण का यह वैद्य और अवैद्य वर्गीकरण कहाँ तक जायज है। कोख की संतान को क्या यह एहसास होता है की समाज के द्वारा उसकी माँ के नाम विवाह का ठप्पा न लग पाने का दंश उसे आजीवन भोगना पड़ेगा। कोख में संतान के पनपने का वर्गीकरण क्या ईश्वर ने किया है ? और इस के लिए न ही वह संतान जिम्मेदार है। इसलिए यदि वह संतान किसी दुराचार या  समाज द्वारा अस्वीकृत प्रेम विवाह से ही क्यों न जन्मी हो उसे माँ की कोख में वैसा ही प्रबंधन मिलेगा जिसकी रचना ईश्वर ने समस्त नारी शरीर में की है। कोख सही या गलत से परे सिर्फ उस अंश को अपने अंदर सहेजना और पनपाना जानती है। परिस्थितियां कोख में आयी संतान को कैसे वैद्य और अवैद्य घोषित कर सकती है. जीवन देने वाला ईश्वर भी जब इस वर्गीकरण को नहीं मानता तब हम उसे मान कर किसी से कैसे एक आम जिंदगी जीने का हक़ छीन सकते है ? वैसे तो हमारे समाज में इस तरह की संतान को जन्म से पहले ही ख़त्म कर देने का चलन है परन्तु यदि कुछ चिकित्सिकीय कारणों से उसे जन्म देना भी पड़े तो माँ और उस बच्चे को जीवन भर इस लांछन के साथ जीना पड़ता है कि दोनों ने ही वैद्यता की सीमा लांघी है क्या यह उचित  है ?…………या यह एक सामाजिक दंश है।  

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