वस्त्र और सोच का तालमेल ………!
ईश्वर ने तन की सरंचना की। अब उसे ढांकने को आवरण भी चाहिए। आदि काल में मानव पेड़ की छालें पत्तियाँ आदि के वस्त्र बना कर अपने शरीर को ढँकता था। बदलते तापमान में शरीर को सुरक्षित रखने के लिए और मौसम से बचाव का ये एक कारगर तरीका खोज निकाला।उस समय लज़्ज़ा या आतंरिक अंगों को ढँक कर रखना उद्देश्य नहीं था। ऐसा इस लिए क्योकिं उस समय भावनाओं की शुद्धता विकृत सोच को जन्म नहीं दे रही थी। समय के साथ परिवर्तन ने वस्त्रों के प्रति इंसान का नजरिया बदला। वस्त्रों की जरूरत आज तन को ढकने के साथ ही सामने वाले की सोच बदलने का भी कार्य करती है। 
                              एक किस्सा याद आया.............  एक बार किसी घड़ी की बड़ी सी दुकान में बहुत ही मलिन वस्त्र पहने एक बुजुर्ग ने प्रवेश किया। घड़ी दिखाने की मांग की।  दुकानदार ने वस्त्रों से उसकी हैसियत का अंदाजा लगा कर सबसे सस्ती वाली घड़ी दिखाई।  उस व्यक्ति ने और महंगी घड़ी दिखाने को कहा तो दुकानदार ने कुछ और  महंगी घड़ियाँ दिखाते हुए उसे उसी में से चुनने को कहा। उस व्यक्ति ने उसे भी नापसंद करते हुए और अच्छी घड़ी की मांग की। दुकानदार भड़क उठा और बोला पहले हैसियत देखो फिर मांग रखो। इस बात पर बड़ी ही शांति से उस बुजुर्ग ने दुकान की सबसे महंगी और शानदार घड़ी निकलवाई और अपने पुराने कुर्ते की जेब में हाथ डालकर चेक बुक निकालते हुए दाम पूछ कर भुगतान कर दिया। दुकानदार भौचक सा देखता रह गया। 
                        आशय यह है की वस्त्र से हैसियत का अंदाजा लगाना आज कल का चलन बन गया है। इसी वजह से अधिक से अधिक महंगे और दिखावटी वस्त्रों का प्रचलन आम हो गया है। अपनी पहचान अलग बनाने के लिए अपने वस्त्रों के उन्ही किस्मों को फेर बदल कर उन्हें ज्यादा फैशनेबल और भव्य दिखाने का प्रयास होने लगा है। इस प्रत्यावर्तन और काट-कूट की प्रक्रिया से वस्त्रों का स्वरुप भी बिगड़ गया है। low waist jeans , छोटे लम्बाई के टॉपर्स , गहरे गले के ब्लाउज ,या फिर सिर्फ डोरी से टिके backless ब्लाऊज आज कल के चलन का हिस्सा तो बन गए है। पर इन्होनें परिणाम अच्छे नहीं दिए हैं। परिणाम से तात्पर्य उन्हें पहनने के उपरांत स्तर भले ही न ऊपर हो पाये पर समाज की निगाहें जरूर कटाक्षपूर्ण हो जाती है। शरीर का प्रदर्शन करने वाले वस्त्रों को पहन कर क्या यह उम्मीद करना जायज है की आप को सभ्य और सुशील का दर्जा  दिया जायेगा।  आधुनिकता को अपनाना गलत नहीं पर उसकी अंधी दौड़ में शरीर के ढके रहने की सीमा को तोड़ देना सही नहीं है। विचार और नजर, ये दोनों ही तय करने का अधिकार हम देते है दूसरे को। इसी बेहतर बनाएं।   बदलते समय के साथ बदलना अच्छा है परन्तु इस बदलाव में निर्वस्त्र होते जाना क्या उचित है। वस्त्र शरीर की शोभा है। सुंदरता और खुशबू छुपाये नहीं छुपती। इस लिए बिना प्रयास के ये अपना रंग बिखेर देंगी पर सही समय पर।  बंद हो मुट्ठी तो लाख की ,खुल गयी तो फिर खाक की ………शरीर तभी तक अनमोल है जब तक उसे ढक कर सुरक्षित रखा जाये जब सारे समाज के सामने उघाड़ दिया तब उसका महत्व क्या रह गया।   यही तो असली कारण है आज कल के गिरते स्तर का। कभी ये सोचा की पुराने समय में  पूरी ढकी पहनी फिल्म तारिकाएं भी क्या गजब ढाती थी उनके भी लाखों दीवाने हो जाया करते थे। वह आज की तरह आधे अधूरे वस्त्रों के बिना भी अपने प्राकृतिक सौंदर्य से सबका मन मोह लेती थी। हम खुद वस्त्रों को अपने  ऊपर राज करने का मौका दे कर उनकी हैसियत बढ़ा रहे है। जबकि वस्त्रों की पहचान पहनने वाले से होती है। शरीर की कीमत समझने के लिए उसे सुरक्षित बनाइये बचाइये ।  मौसम से , समाज से , बुरी नजरों से और अपने लगातार गिरते स्तर से। पहचान बनाने के लिए किये गये प्रयास में जिन वस्त्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है उन्हें उसे बिगाड़ने का मौका न दें। जरूरी नहीं की आधुनिक बनने के लिए वस्त्रों  का छोटे से छोटा होते जाना आवश्यक है। पाश्चात्य और भारतीयता के अंतर में ही वस्त्रों का आधुनिक होने का सार छिपा है। उसे पहचानिये और अपनाइये ………. .    

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