स्व आंकलन के पश्चात मूल्यांकन……! 
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिल्या कोई , जो मन खोजो आपनो मुझसे बुरा न कोई। कबीर का यह दोहा आज कुछ ज्यादा ही प्रासंगिक है। इस लिए क्योंकि आज के प्रगतिशील और व्यस्त समाज में किसी को इतनी फुर्सत नहीं की वह अपनी गलतीओं और बुराइओं का आंकलन और मूल्यांकन कर सके।  भागती  दौड़ती जिंदगी में अपने अंदर की अच्छाइयां और दूसरे की बुराइयां खोजने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। मैं ही मैं की  प्रधानता हावी होते रहना,इस का एक प्रमुख कारण  है।  रोजमर्रा के जीवन में जिन से भी वास्ता पड़ता है उनसे बेहतर और सकारात्मक व्यव्हार की उम्मीद पूरी हो तो अच्छा अन्यथा वह बुरा और हम अपने आप ही अच्छे साबित हो जाते है। ऐसा इस लिए की उस समय हमें उसके प्रति अपने किये हुए सारे कार्य उस पर एहसान की तरह याद आने लगते है। जबकि उस के पहले के सारे प्रयासों पर हम पानी फेरते हुए उसे एहसानफरामोश की उपाधि तक दे बैठते है। समय और परिस्थतियां यदि पक्ष में हो तो कार्य अपने आप बन जाते है चाहे उस के पीछे किसी का भी प्रयास शामिल हो। कभी कभी तो बिना प्रयास के ही सफलता हाथ लग जाती है तो इस के लिए क्या आप ईश्वर का धन्यवाद करते है ? क्योंकि लिखने वाले ने उस कार्य के सफल होने का सत्य पहले ही आप के नाम लिख दिया। चाहे कोई माध्यम हो न हो। 
                                समाज इसी का नाम है की दूसरों से जुड़ कर रहें और एक हाथ लेनी, एक हाथ देनी वाला प्रक्रम अपनातें  रहें। किसी भी रिश्ते में तभी सौहार्द बना रह सकता है जब की आप उसकी अपेक्षाओं पर खरे उतरे और उसे आप की मदद करने की आजादी दें। मदद भी क्षमता के बाहर न हो। इस सोच ने आज कल रिश्तों को बहुत दूर दूर सा कर दिया है। रिश्तें  प्रेम से नहीं जरूरतों के आधार पर चल रहें है  जब तक सुचारू रूप से प्रयोजन सिद्ध होते रहें रिश्तें में प्रेम की जगह रहती है जब असफलता का स्वाद चखना पड़ता है तब ये प्रेम वैमनस्य में परिवर्तित हो जाता है। पहले खुद को समझने का प्रयास होना चाहिए क्योकि ऐसा कोई मापदंड नहीं है जो किये जा रहे कार्यों के मूल्य का आंकलन कर सके। मदद बड़ी या छोटी करने वाली की परिस्थति पर निर्भर करती है। यदि छोटी सी मदद भी उसने विकट परिस्थतियों में की है तो उसका मूल्य बड़ा ही होना चाहिए। बाद में उसे अपनी मदद से छोटा मान कर अपना दबदबा दिखना उचित नहीं है। जीवन में मिल जुल कर रहने और एक दूसरे के काम आते रहने का नाम ही रिश्ता है जरूरी नहीं की यह रक्त संबंधी ही हो क्योकि प्रेम रक्त संबंधों पर आधारित नहीं होता। इस को बनाये रखने के लिए दूसरों के किये की कद्र करना  सीखें और उसको सम्मान देते हुए हमेशा उनके लिए प्रस्तुत रहें।  ताकि अच्छाइयां और बुराइयां के तोल मोल के बजाय रिश्ता कैसे चिरस्थाई रहे यह प्रयास किया जाये। आप के जीवन में गुजरने वाले हर पल का लेखा  जोखा जब ईश्वर के हाथ में है तब कोई दूसरा कैसे उसके होने या न होने का उत्तरदाई  हो सकता है।  सफल या असफल होना कार्य  के भाग्य में ही लिखा होता है आप और कोई भी वह, जिसे आप ने कार्य सौंपा है  माध्यम भर है।भविष्य की गर्त में पलने वाले परिणाम  के ऐवज में यथार्थ का बहुमूल्य धन रिश्ता मत गवाएं। संजोएं , सहेजें  और सुख उठाते रहें।   

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