क्रोध का नकारात्मक और सकारात्मक रूप...!

क्रोध का नकारात्मक और सकारात्मक रूप ....!!


आज के  व्यस्त और भागते दौड़ते जीवन में जैसे प्रसन्नता के खोने की बात महत्वपूर्ण है वैसे ही एक ऐसे विकार के जीवन में गहरी पैठ बनाने की भी बात सत्य है जिसे चाह कर भी हम सभी खुद से अलग नहीं कर पा रहें है।.…… ईश्वर प्रद्दत इस मानव तन में अनेकों भावनाओं ने स्थान पाया है इसी को दर्शाने के लिए नृत्य नाटकों में हाव भाव के जरिये इन भावनाओं का प्रदर्शन किया जाता है। भावनाओं की कोमलता ,कठोरता, उग्रता , आदि सभी भावों को हम जीवन से कुछ इस कदर जोड़ लेते हैं कि ये अमिट अंश बन जातें है। रोजमर्रा के जीवन में तो हम इन भावनाओं के साथ ऐसे घुलते मिलते क्षण काट देते है कि उनके अच्छे या बुरे होने का अहसास ही नहीं होता। लेकिन एक भावना दीमक  बन कर जीवन को  खोखला कर रही है। वह है क्रोध .... सामान्य से जीवन की कोई भी अनहोनी क्रोध का कारण बन जाती है। लीक पर चलने वाला जीवन में अचानक अनिच्छापूर्ण किसी कार्य का होना व्यव्हार को अनियंत्रित कर बौखला देता है। यही  क्रोध है जो किसी भी रूप में बाहर आ सकता  है। ऐसे में चाहे खुद को नुकसान पहुँचाना हो या किसी दूसरे को यह सोचने समझने की काबिलियत खो जाती है। क्रोध का सबसे बड़ी हानि है वो ये की इस स्थिति में सिर्फ शरीर काम करता है दिल दिमाग और आत्मा सब निष्प्राय हो जाते हैं  सही गलत का फर्क न जान पाना किसी बड़ी परेशानी को न्यौता दे बैठता है। आखिर क्यों भावनाओं का इतना उद्वेलित हो जाना हमारी पहुँच के बाहर हो जाता है ?                          विचारों को संयम से बहने देने की कला है जीवन। किसी का भी अतिरिक्त बहाव रिश्तों और सामाजिक जीवन को प्रभावित कर सकता है। क्रोध की भावना जन्म से नहीं मिलती।  इसे हम समाज में रह कर सीखते और अपनाते है। यह इस पर भी निर्भर करती है कि आप किन लोगों के बीच रह रहे हो और किस तरह अपना समय व्यतीत कर रहे हो।  परिस्थितियां क्रोध का कारण है पर इन परिस्थितियों को पैदा करने का कारण हम हैं। जिन रिश्तों और समाज के बीच हमें पूरा जीवन गुजारना है उन्हें लेने और देने दोनों के तराजू में रखना चाहिए। इस से मिठास के बने रहने और बहते रहने में मदद मिलेगी। क्रोध रोकने के कई  कारगर तरीकें है जिन्हें बड़ी ही आसानी से जीवन में उतारा  जा सकता है। सबसे पहले तो किसी को कुछ भी कहते या  सुनते समय धैर्य रखने का प्रयास करें हालाँकि ये मुश्किल है पर असंभव तो नहीं। शांत मन और मस्तिष्क समझने और स्वीकार करने में सहायक होंगें। दूसरा ये कि यदि कभी किसी बात पर अत्यधिक क्रोध आ ही जाए तो थोड़ी देर मुख में जल भर कर बैठ जाएँ उसे तब तक हलक से न उतारें जब तक मन शांत न हो जाए। किसी अच्छी याद को सोच कर मुस्कुराने का प्रयास करें। उस व्यक्ति से जुड़ी किसी सहायता का समरण करें। ईश्वर का स्मरण करें जिस से विचारों की शुद्धता बढ़ेगी।  सामान्यतः विचारों का मतभेद ही क्रोध को जन्म देता है पर ये सोचें की यदि आप खुद को सही मानते है तो सामने वाले व्यक्ति  भी अपनी सोच को सही मान कर आपसे तर्क कर सकता है। इस तर्क में ही एक संयोजित सत्य ढूंढ़ना जरूरी है जिस से क्रोध का जन्म ना हो पाये। संयम और धैर्य ,ये मानव स्वाभाव के दो आभूषण है जिन्हे पहनने वाला शरीर और मन से सदा स्वस्थ रहता है। क्रोध शरीर के ऊपर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। ये जितना आप को व्यथित करता है उतना ही उसे भी , जिस के प्रति आप क्रोध दिखा रहें है। रिश्तों का ताना बाना प्रेम के धागों से बंधा रहता है क्रोध में उसे तोड़ कर पुनः जुड़ने की गांठ मत लगाइये।                                                                            क्योंकि गांठ लगे रिश्तों का लचीलापन  उन्हें कभी भी झटका दे सकता  है।  वे पुनः टूट सकते हैं। अतः क्रोध को अपने जीवन को चलाने का मौका न दे बल्कि उसे अपने अंदर उस आग की तरह संभाल कर रखे जो अन्याय, अत्याचार, अनुचित के खिलाफ उठ कर उसे उचित में बदलने की ताकत बन सके। क्रोध का सकारात्मक रूप हम सब में मौजूद होना ही चाहिये। कहते हैं न कि प्यार और जंग में सब जायज है तो इस क्रोध की आग को प्रेम बढ़ाने और जंग जितने के लिए किया जाए। जो जीवन की व्यवस्था को सुचारू चलाने में सहायक हो। अब इस नकारात्मक स्वरुप का रूपांतरण किस प्रकार सकारात्मकता से करें ये ही सही मायनों में जीने की कला है।जो शांत और सुखी जीवन का अर्थ प्रस्तुत करती है 

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