सृजनकर्ता होने का दंश !
निर्माण प्रकृति का नियम है। जिसके सहारे ये संसार चलायमान है। बीज से पौधे का बनना , और फिर उसी पौधे से हजारो बीजों का जन्म लेना ही जीवन चक्र है। विधाता ने मनुष्य को भी बनाते समय भी इसी गुण का ध्यान रखा और उसके अंदर ऐसी विशेषतायें विकसित कर दी की वह भी ईश्वर के सृजन का हिस्सा बन सके। पुरुष और स्त्री दोनों ही इस नए सृजन में बराबर के भागीदार हैं। परन्तु सृष्टि में अनंत काल से स्त्री अपनी इस विशेषता का सुख उठाने और खुद को इस देन से समृद्ध समझने के बजाए इसका दंश भोग रही है। इसका कारण चाहे जो भी मानें पर यही गुण उसके लिए आज अभिशाप बन गया है। पुरुष का वरदान उसके व्यक्तित्व के स्वातंत्र को बनाये रखने में बाधक बन रहा है पुरुष ने इस ईश्वरीय प्रदत्त वरदान को अपनी जरूरत ,इच्छापूर्ति और मनोरंजन का माध्यम मान लिया है। स्त्री का अस्तित्व उनके लिए महज इतना भर है की वह उनको जन्म देकर आजीवन किसी न किसी रूप में उनकी इच्छाओं की पूर्ति करती रहें। माँ बहन बेटी पत्नी ………… वह भी सिर्फ अपनी। और बाकि सारी स्त्रियां कभी भी कही भी उनके लिए उनकी इच्छापूर्ति का सामान बन सकती है आज समाज के गिरते स्तर में अपने और पराये का भी फर्क मिटा दिया है आज वही शोषण करते हैं जिस से आप रक्षा और सहारे की उम्मीद लगा कर बैठें हैं। पुरुष की इस मानसिकता के बिगड़ते स्वरुप को कैसे सुधरा जाए ये एक विचारणीय विषय है ........... . इसका समाधान सिर्फ इस विषय पर चर्चा से नहीं निकल सकता जो की हमारे नेता सदन में अक्सर कर के भूल जाते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक दहशत में जीना किसे कहते हैं यह एक स्त्री से बेहतर और कौन जानता है ………………।
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