संशोधन की आवश्यकता जानी…………… !
धन्य भाग्य ! ……………जो किसी सोच को तो सही मान कर उस पर कार्यवाही की गयी। आज के समाचार पत्र की पहली हेडलाइन की अब गंभीर अपराधों के मामले में किशोर को 18 के बजाये 16 की उम्र से बालिग माना जायेगा। हम इस विषय पर पहले भी चर्चा कर चुकें है की उम्र के बजाये सोच से बालिग होने की जरूरत को तवज्जो दी जाये। आज इसे कानून ने भी माना। निर्भया कांड में एक अपराधी का इस तरह सज़ा से बच जाना की वह महज़ 6 माह से बालिग होने से पीछे था किसी को भी हज़म नहीं हुआ। आज देश में किशोर वर्ग के जितने भी मामले दर्ज होते है उसमे से 65 फीसदी मामले में आरोपी 18 से 16 वर्ष की उम्र के ही बीच ही होतें हैं।आज के ही एक अन्य समाचार अनुसार 17 वर्ष के एक बालक ने शराब के नशे में अपने ही साथ के कुछ सदस्यों से मारपीट कर उनमे से दो को मार डाला। इसे क्या बाल अपराध की श्रेणी में रखा जाए ? इस समय शरीर में hormonal disbalance (अन्तः स्रावी हॉर्मोन ) के परिवर्तन स्वरुप युवा वह अनेकों कार्य करने के लिए उत्सुक हो जाता है जिनकी उम्र और समय कुछ बाद का होता है। हालाँकि ये कानून सिर्फ गंभीर अपराधों की श्रेणी में लागू किया जायेगा फिर भी इस संशोधन से ये आस तो बनती है की अब उस अपराधी को वयस्कों की ही अदालत में पेशी के उपरांत मुक़दमे का सामना करना होगा। जब उसकी सोच में ही वह बच्चे की मासूमियत ख़त्म हो चुकी हो तब उसे बालक की श्रेणी में रखना अत्यंत गलत था। चलो देर आये दुरुस्त आये। निर्भया ने जाते जाते अपने पीछे एक इस नेक नियम को बनने का मार्ग दे दिया। जिस से युवा की सोच पर कुछ तो लगाम कसेगी।आज के निरंतर ख़राब होते माहौल में जरूरी है की कुछ कड़े कदम उठा कर युवाओं को घृणित कामों से रोकने का प्रयास किया जाए। पर ये समझ से परे है की ऐसी कौन सी संस्थाएं है जो इस का विरोध कर रही हैं ? उनका मकसद क्या है और उनकी खुद की सोच में उनकी संतानों के बालिग होने की क्या उम्र होनी चाहिए ? क्योंकि जब भी कोई ऐसा कार्य करने को बालक मचलता है जो उसके लायक नहीं है तो माता पिता उसे ये कह कर रोक देते है कि अभी नहीं ,तू अभी छोटा है। क्या उन्होंने कभी भी अपने बच्चों से ये बात नहीं कही होगी ? संतानों का खुलापन उनकी उम्र के अनुसार रखना ही एक अच्छे माता पिता का फर्ज होता है। आज इंटरनेट के जमाने में समय से पहले बड़े होते बच्चो का बचपना कोई कैसे कायम रख सकता है। आप नहीं भी बताएँगे तो उसकी जानकारी उन्हें नेट के जरिये और भी विस्तार से मिल जाएगी। और वह भी बिना आप की जानकारी के कि आप का बच्चा इतना सब कुछ जानता है। जिसे आप उस का खिलन्दड़ापन समझ रहें हों वही एक दिन किसी जघन्य अपराध के रूप में आप के सामने आ जायेगा।
इस नए कानून को juvenile justice act के जरिये संशोधित कर पारित किया जाएगा। जिसमे अपराध का स्तर और गम्भीरता के अनुसार बालक को सजा के लिए प्रस्तुत किया जाएगा। एक बात और समझने और सोचने की है कि क्या ऐसे कानूनों को संसद में पास करवाने में इतना समय लगना जायज है। अपने बिल और भत्तों का विधेयक कुछ मिनटों में पास करवाने वाले सांसद इस गंभीर विषय की जरूरत और कीमत नहीं समझ पाये। एक आम युवती की विवशता को ये विधायक और नेता फैशन की मार कह कर उसका मखौल उड़ाने से भी बाज नहीं आते। ये सब विरोध में अपने तर्क को पहले खुद पर आजमाया हुआ महसूस करें ,सभी तर्क सहमति में बदल जायेंगे। जिन संस्थाओं ने विरोध में स्वर उठाएं है उन्होंने ये कहा की इस संशोधन से बालक सुधार के बजाये गंभीर अपराधी में बदल जाएगा। उन्हें अपने तर्क से पहले ये सोचना चाहिए कि उम्र के साथ की भावनाएं खो चुके बालक के साथ चाहे आप कैसे भी बर्ताव करो, उसका भोला बचपना वापस नहीं ला सकते और जब वह सोच से ही व्यस्कों सा बन चुका है तो उसे दो वर्ष तक और क्यों खुला छोड़ कर कुछ और नया घृणित करनें की आजादी दे दें। चाहे उन्हें सुधार गृह में ही रख ले पर वहाँ भी तो संगी साथी ऐसे ही मिलेंगे जो कुछ इसी तरह का कार्य कर के आये होंगे। तो ऐसे लोगों के बीच 2 या 3 साल तक समय गुजारने के बाद बाहर आने पर उनसे आदर्श व्यव्हार की उम्मीद क्या जायज है ? कोई भी बच्चा अपने परिवार के बीच रहकर ही ऐसे गलत कार्यों को अंजाम देता है। इस लिए सबसे पहले ये हमारा फर्ज है की हम अपने बच्चे की क्रियाकलापों पर निगाह रखें। उसकी सोच में बढ़ती वयस्कता को महसूस करें। उस पर लगाम लगाने का प्रयास करें और परिवार के बड़े बुजुर्गों के बीच ज्यादा से ज्यादा रख कर उनके बचपने को पनपने दे। क्योंकि उम्र के अंतर का अहसास तभी कर पाएंगे जब वह बड़े बुजुर्गों की छाँव में रहेंगे। सोच और कार्यों के अंतर से उन्हें ये अहसास होगा की वह अभी बच्चे हैं और उनके लिए उनके बड़े बुजुर्ग बैठें है। जब भी अपने बच्चो को उनके स्वयं के भरोसे छोड़ कर उन्हें खुद ही उनकी दुनिया बसाने का हक़ दे देंगे वह कुछ ऐसा ही निर्माण करना चाहेंगे जो समाज और कानून की नजर में सही नहीं होगा। क्योंकि उनकी उम्र में कुछ नया , कुछ आकर्षक या कुछ दुष्कर करना उनकी चाहत होती है।
इस लिए ये एक बेहतर राह चुनी गयी है जिस से बढ़ते बालक को अपना बचपना बचाये रखने में मदद मिल सकती है बशर्ते परिवार का सहयोग बना रहें। ये समझना अत्यंत आवश्यक है कि जीवन एक बार ही मिलता है और उसे बेहतर या बदत्तर हम ही बनाते हैं। एक बचपन ही है जो इस रास्ते को मीठा और सरस बना सकता है। इस लिए बचपन को बचाएं , ऐसे कानूनों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। कहते है न कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं। तो इसी रूप को बालक में कायम रखना हर उस माता पिता की जिम्मेदारी है जो जन्म देने के बाद उन्हें समाज में खुला छोड़ देते हैं।चलिए ये सोचें और माने की हम ही अपने बच्चो को सही राह चुनने और उस पर चलने के लिए के लिए प्रेरित कर सकते हैं पहल करें.............
धन्य भाग्य ! ……………जो किसी सोच को तो सही मान कर उस पर कार्यवाही की गयी। आज के समाचार पत्र की पहली हेडलाइन की अब गंभीर अपराधों के मामले में किशोर को 18 के बजाये 16 की उम्र से बालिग माना जायेगा। हम इस विषय पर पहले भी चर्चा कर चुकें है की उम्र के बजाये सोच से बालिग होने की जरूरत को तवज्जो दी जाये। आज इसे कानून ने भी माना। निर्भया कांड में एक अपराधी का इस तरह सज़ा से बच जाना की वह महज़ 6 माह से बालिग होने से पीछे था किसी को भी हज़म नहीं हुआ। आज देश में किशोर वर्ग के जितने भी मामले दर्ज होते है उसमे से 65 फीसदी मामले में आरोपी 18 से 16 वर्ष की उम्र के ही बीच ही होतें हैं।आज के ही एक अन्य समाचार अनुसार 17 वर्ष के एक बालक ने शराब के नशे में अपने ही साथ के कुछ सदस्यों से मारपीट कर उनमे से दो को मार डाला। इसे क्या बाल अपराध की श्रेणी में रखा जाए ? इस समय शरीर में hormonal disbalance (अन्तः स्रावी हॉर्मोन ) के परिवर्तन स्वरुप युवा वह अनेकों कार्य करने के लिए उत्सुक हो जाता है जिनकी उम्र और समय कुछ बाद का होता है। हालाँकि ये कानून सिर्फ गंभीर अपराधों की श्रेणी में लागू किया जायेगा फिर भी इस संशोधन से ये आस तो बनती है की अब उस अपराधी को वयस्कों की ही अदालत में पेशी के उपरांत मुक़दमे का सामना करना होगा। जब उसकी सोच में ही वह बच्चे की मासूमियत ख़त्म हो चुकी हो तब उसे बालक की श्रेणी में रखना अत्यंत गलत था। चलो देर आये दुरुस्त आये। निर्भया ने जाते जाते अपने पीछे एक इस नेक नियम को बनने का मार्ग दे दिया। जिस से युवा की सोच पर कुछ तो लगाम कसेगी।आज के निरंतर ख़राब होते माहौल में जरूरी है की कुछ कड़े कदम उठा कर युवाओं को घृणित कामों से रोकने का प्रयास किया जाए। पर ये समझ से परे है की ऐसी कौन सी संस्थाएं है जो इस का विरोध कर रही हैं ? उनका मकसद क्या है और उनकी खुद की सोच में उनकी संतानों के बालिग होने की क्या उम्र होनी चाहिए ? क्योंकि जब भी कोई ऐसा कार्य करने को बालक मचलता है जो उसके लायक नहीं है तो माता पिता उसे ये कह कर रोक देते है कि अभी नहीं ,तू अभी छोटा है। क्या उन्होंने कभी भी अपने बच्चों से ये बात नहीं कही होगी ? संतानों का खुलापन उनकी उम्र के अनुसार रखना ही एक अच्छे माता पिता का फर्ज होता है। आज इंटरनेट के जमाने में समय से पहले बड़े होते बच्चो का बचपना कोई कैसे कायम रख सकता है। आप नहीं भी बताएँगे तो उसकी जानकारी उन्हें नेट के जरिये और भी विस्तार से मिल जाएगी। और वह भी बिना आप की जानकारी के कि आप का बच्चा इतना सब कुछ जानता है। जिसे आप उस का खिलन्दड़ापन समझ रहें हों वही एक दिन किसी जघन्य अपराध के रूप में आप के सामने आ जायेगा।
इस नए कानून को juvenile justice act के जरिये संशोधित कर पारित किया जाएगा। जिसमे अपराध का स्तर और गम्भीरता के अनुसार बालक को सजा के लिए प्रस्तुत किया जाएगा। एक बात और समझने और सोचने की है कि क्या ऐसे कानूनों को संसद में पास करवाने में इतना समय लगना जायज है। अपने बिल और भत्तों का विधेयक कुछ मिनटों में पास करवाने वाले सांसद इस गंभीर विषय की जरूरत और कीमत नहीं समझ पाये। एक आम युवती की विवशता को ये विधायक और नेता फैशन की मार कह कर उसका मखौल उड़ाने से भी बाज नहीं आते। ये सब विरोध में अपने तर्क को पहले खुद पर आजमाया हुआ महसूस करें ,सभी तर्क सहमति में बदल जायेंगे। जिन संस्थाओं ने विरोध में स्वर उठाएं है उन्होंने ये कहा की इस संशोधन से बालक सुधार के बजाये गंभीर अपराधी में बदल जाएगा। उन्हें अपने तर्क से पहले ये सोचना चाहिए कि उम्र के साथ की भावनाएं खो चुके बालक के साथ चाहे आप कैसे भी बर्ताव करो, उसका भोला बचपना वापस नहीं ला सकते और जब वह सोच से ही व्यस्कों सा बन चुका है तो उसे दो वर्ष तक और क्यों खुला छोड़ कर कुछ और नया घृणित करनें की आजादी दे दें। चाहे उन्हें सुधार गृह में ही रख ले पर वहाँ भी तो संगी साथी ऐसे ही मिलेंगे जो कुछ इसी तरह का कार्य कर के आये होंगे। तो ऐसे लोगों के बीच 2 या 3 साल तक समय गुजारने के बाद बाहर आने पर उनसे आदर्श व्यव्हार की उम्मीद क्या जायज है ? कोई भी बच्चा अपने परिवार के बीच रहकर ही ऐसे गलत कार्यों को अंजाम देता है। इस लिए सबसे पहले ये हमारा फर्ज है की हम अपने बच्चे की क्रियाकलापों पर निगाह रखें। उसकी सोच में बढ़ती वयस्कता को महसूस करें। उस पर लगाम लगाने का प्रयास करें और परिवार के बड़े बुजुर्गों के बीच ज्यादा से ज्यादा रख कर उनके बचपने को पनपने दे। क्योंकि उम्र के अंतर का अहसास तभी कर पाएंगे जब वह बड़े बुजुर्गों की छाँव में रहेंगे। सोच और कार्यों के अंतर से उन्हें ये अहसास होगा की वह अभी बच्चे हैं और उनके लिए उनके बड़े बुजुर्ग बैठें है। जब भी अपने बच्चो को उनके स्वयं के भरोसे छोड़ कर उन्हें खुद ही उनकी दुनिया बसाने का हक़ दे देंगे वह कुछ ऐसा ही निर्माण करना चाहेंगे जो समाज और कानून की नजर में सही नहीं होगा। क्योंकि उनकी उम्र में कुछ नया , कुछ आकर्षक या कुछ दुष्कर करना उनकी चाहत होती है।
इस लिए ये एक बेहतर राह चुनी गयी है जिस से बढ़ते बालक को अपना बचपना बचाये रखने में मदद मिल सकती है बशर्ते परिवार का सहयोग बना रहें। ये समझना अत्यंत आवश्यक है कि जीवन एक बार ही मिलता है और उसे बेहतर या बदत्तर हम ही बनाते हैं। एक बचपन ही है जो इस रास्ते को मीठा और सरस बना सकता है। इस लिए बचपन को बचाएं , ऐसे कानूनों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। कहते है न कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं। तो इसी रूप को बालक में कायम रखना हर उस माता पिता की जिम्मेदारी है जो जन्म देने के बाद उन्हें समाज में खुला छोड़ देते हैं।चलिए ये सोचें और माने की हम ही अपने बच्चो को सही राह चुनने और उस पर चलने के लिए के लिए प्रेरित कर सकते हैं पहल करें.............
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