spending capacity creates classes ....!

अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए व्यक्ति को बहुत सी वस्तुओं की जरूरत होती है। पुराने समय में किसी वस्तु को खरीदने के लिए उसके बदले अनाज दे कर उसे क्रय किया जाता था। अर्थात किसी वस्तु के बदले दुसरी वस्तु। इस प्रक्रिया को तत्कालीन सभ्यता में बार्टर सिस्टम  के नाम से जाना जाता था। इस अदला बदली के जरिये बड़े से बड़े व्यापर हो जाया करते थे। और ऐसा भी नहीं की उस समय सम्पन्नता नहीं थी। सभी अपने अपने हुनर के अनुसार कार्य कर के धन कमाते थे इसी से उनके हुनर में और परिपक्वता आती थी। दूसरे देशो से भी व्यापार  के लिए अपनी जगह की वस्तु ले जा कर उसके बदले दूसरे देश से उनकी वस्तु का आदान प्रदान कर लिया जाता था। इस तरह लोग अपनी क्रय शक्ति का प्रयोग करते थे। पर आज की स्थिति भिन्न है  ………आज व्यक्ति को कार्य के बदले मेहनताने के रूप में रूपये मिलते है। और उस पैसे से वह अपनी जरूरत की सारी वस्तुएं खरीदता है। बाजार में उसके प्रयोग के लिए लाखों वस्तुओं का भंडार मौजूद है। अनेकों  कम्पनियाँ  कई तरह के सामान बना कर उनकी क्रय शक्ति का लाभ उठाती हैं। एक ही वस्तु की सैकड़ों किस्में बाजार में मौजूद हैं । सबसे दुखद बात जो है वह ये कि आज मानव की सोच बहुत बदल चुकी है। आज मानव आवश्यकता के लिए क्रय नहीं करता बल्कि वह अपने खर्च करने की क्षमता प्रदर्शित करने के लिए क्रय करता है। आजकल अपनी खरीदी गयी किसी भी चीज़ का प्रस्तुतीकरण उस आदमी के स्टेटस सिंबल एवं उसके स्टैण्डर्ड का परिचायक बन गया है। उसे  अपनी spending capacity को दर्शाने के लिए  एक ही वस्तु के कई brands या उसी से related  वह कोई भी वस्तु ख़रीदनी है जिस से उसका status बढ़ा हुआ नजर आये। जितनी ज्यादा कमाई उतनी ज्यादा वस्तुओं की किस्में। यही क्रय शक्ति आगे चलकर हमारे समाज में अमीर एवं गरीब के बीच के अंतर को और बढ़ा देती है। इस कारण गरीब अथवा मिडिल क्लास लोगों में अपना स्तर ऊपर उठाने के लिए जद्दोजहद शुरु हो जाती है।
                                            इस बात का फायदा उठाती है बाज़ार में मौजूद कंपनियां। आज कल के युवा पीढ़ी को लक्ष्य बना कर विभिन्न लुभावने विज्ञापनों के जरिये ये अपने उत्पाद के प्रति आकर्षण पैदा करना खूब जानते है। और इस तरह यह बाज़ारूपन को बढ़ावा देती है। इस नए चलन ने बाज़ार की सार्थकता को नष्ट सा कर दिया है। सार्थकता से तात्पर्य है कि उन्ही वस्तुओं का क्रय जो जीवन के लिए आवश्यक हों वह भी न्यूनतम दामों पर।   आज व्यक्ति अपनी आवश्यकता को कही पीछे छोड़ कर सिर्फ अपनी purchasing  power दिखाने के लिए खर्च करता है। अपने पैसे की शक्ति से ग्राहक बाजार में सिर्फ कपट बढाने का काम करते हैं। और कपट बढ़ने का अर्थ है सदभावना  का घटाव। यह सदभावना तब प्रभावित होती है जब बाजारीकरण के कारण  लोगों के स्तर में भिन्नता आने लगती है। उसके पास वह है मेरे पास क्यों नहीं ? यह प्रश्न ही अंतर पैदा करता है। एक दूसरे से लाभ हानि वाला रखने का व्यव्हार हम बाजार से ही सीखते है अर्थात उसकी हानि में अपना लाभ। और इस तरह का बाजार आवश्यकता पूर्ति के  बल्कि शोषण के लिए पैदा होते हैं। जब सभी कुछ लेने लायक दिख रहा हो तो चुनाव जेब की क्षमता पर निर्भर करेगा। 
           MONEY CREATES CLASS  ये एक शाश्वत सत्य है। पर ये धन जब बाजार में आ जाता है तब असल में उच्च और निम्न का अंतर पता चलता है। क्योंकि बाजार की अनगिनत वस्तुओं में से सबसे महंगी वस्तु का चुनाव  अमीर बनाने के लिए काफी है। जब एक इस तरह की अमीरी के पीछे भागता है तो उसका देखा देखी दूसरा भी उसी तरह की दूसरी वस्तु को अपना लक्ष्य मानने लगता है। और तब ये प्रतिद्वन्दता अनेकों तरह के व्यभिचारों को न्यौता देती है। चोरी ,लूटमार, डकैती जैसे अपराध इन्ही सब आचरणों का दूरगामी नतीजा है। पैसे का कम या ज्यादा होना एक बड़ी समस्या नहीं बल्कि उसका प्रदर्शन बड़ी समस्या है। इसी से अगला प्रभावित हो कर वैसा ही कुछ पाने के लिए कुछ भी करने को बाध्य हो जाता है। बाज़ार की विविधता ही लोगों को आकर्षित कर उन्हें अधिक से अधिक धन खर्च करने को उकसाती है। हमारे खर्च में उन कम्पनीयों का फायदा छिपा होता है जो लाखों लगा कर अपने उत्पाद का आकर्षक विज्ञापन बना हमें  खरीदने को उकसाती हैं। उन्हें इस सत्य से कोई सरोकार नहीं की उसे खरीदने के लिए धन का जुगाड़ कहाँ से और कैसे किया जा रहा है। समाज में उच्च ,मध्यम और निम्न वर्ग का वर्गीकरण ही इस बाजार की वजह से आया है। जैसा घर का सामान वैसा ही status । यही status का लालच आज लोगो की जरूरत बन चुका है।  इसी स्टेटस  से समाज में discrimination का भाव आ गया है जो समाज को ऊँचे नीचे स्तर में बांटता है। अतः समस्या की जड़ ये बाज़ार ही है जिस से दूर रहने में ही समझदारी है जितना पास जाओगे उतना भँवर में फँसते जाओगे।इसलिए बेहतर है कि दाल रोटी खाओ प्रभु के गुन गाओ।    
                                                                            

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