भक्ति का विवाद……… बेबुनियाद !
आज कल के साधु संत खुद को पूजनीय बनाने के फेर में क्या - क्या नहीं करते ये तो जग जाहिर है। उनके बस में जो कुछ नहीं भी होता वह भी कर के लोगो को बेवकूफ बनाना उन्हें खूब आता है। इसी लिए बेहतर यही है कि जो भी हमारे आदि कुल देवी देवता है उन्हें ही पूजें और आराधना करें। एक नयी धर्म चर्चा के जन्म लेने से एक विवाद और खड़ा हो गया कि शिर्डी के साईं क्या वाकई भगवान है या नहीं। इसी विषय पर चर्चा के लिए धर्म संसद बैठाई गयी है। अनेकों धर्म अखाड़ों और शंकराचार्यों ने अपने अपने तर्कों द्वारा ये सिद्ध करने का प्रयास किया कि साईं कोई भगवान नहीं हैं। उनके अनुसार सनातन परंपरा में पंच देव - शिव ,शक्ति ,गणेश, विष्णु और सूर्य ही हैं। और ये ही पूजनीय हैं। बाकी के 24 अवतार इन्ही के विभिन्न रूप हैं। हमारी संस्कृति के अनुसार इन्ही देवी देवताओं की पूजा अर्चना होनी चाहिए।
साईं असत है ,अवचेतन है , और अचेतन है इसलिए उन्हें गुरु भी नहीं माना जा सकता। और तो और साईं न तो खुद को हिन्दू मानते थे न ही मुसलमान तब उन्हें किस आधार पर पूजा जाये ये तर्क रखे जा रहें हैं। इन सभी तर्कों को देने वाले कभी अपने चरित्रों की छानबीन करें तो फर्क साफ़ हो जाएगा। साईं की मृत्यु 1918 में हो गयी इस लिए हमने जो भी सुना है उसे ही मानते है। उसी के अनुसार साईं एक निश्छल , दयालु ,परोपकारी और सहृदय मानव थे। हो सकता है कि उन्होंने देवताओं जैसे कोई काम न किये हों पर अपने इन गुणों के चलते उन्होंने परोपकार की जो मिसाल दी है वह प्रशंसनीय है। अगर उन्हें पूजा न भी जाए तो उनको आदर्श मानने से तो कोई नहीं रोक सकता। शायद इसी वजह से लोग उन्हें पूजने भी लगे। शक्ति का होना या न होना अपने आचरण पर निर्भर करता है। कैसे ये छुटभइये साधु संत अपनी शक्ति प्रदर्शन के लिए नए नए करतब दिखाते है कि जेब में लाल रुमाल रखो ,दाहिने हाथ में काला धागा बांधो आदि आदि। जिस से जो न होना होगा वह भी हो जायेगा। क्या ये सही है ? क्या ये लोग अपनी पूजा नहीं करवा रहे ? इनके टीवी कार्यक्रमों में देखिये कि कैसे ये भगवान की तरह लोगो के बीच बैठ कर उनकी भावनाओं को अपने वश में करते हैं। और लोग है कि अच्छा होने की चाह में इनको मान दिए जाते हैं।
यदि इस नजरिये से देखें तो साईं ने कब ये कहा की मुझे भगवान की तरह पूजो। उनसे सम्बंधित किसी भी वाकये में या सन्दर्भ में उन्हें ये कहते और मनवाते नहीं पाया जा सकता की मुझे ईश्वर की तरह पूजा जाए। हाँ ये जरूर है कि उनसे प्रेम करने वाले उन्हें अपने गुरु या आदर्श के रूप में मानने लगे। इस में उनका न कोई योगदान है न ही दबाव। साईं एक सच्चे मानव के रूप जन्मे और वैसे ही चले गए अगर उन्हें एक आदर्श के रूप में याद किया जा रहा है तो इस में कोई बुराई नहीं। उनके व्यव्हार को अपने लिए मिसाल बना कर याद करना अच्छी बात है। क्या हम गांधी जी को या नेहरू को उनके विचारों और व्यवहारों के लिए नहीं याद करते ? उसी तरह साईं को भी याद ही किया जा रहा बस याद करने का तरीका शायद पूजा जैसा कर दिया गया है। हमारे स्वर्गीय पीढ़ी को भी तो हम दिया बत्ती करके ही याद करते हैं। जरूरी यह है कि वे लोग जिन का आचरण अनुसरण के योग्य हो उन्हें याद किया जाए। कैसे … ये याद करने वाले की श्रद्धा पर निर्भर करता है। मेरी नज़र में साईं वाकई पूजनीय संतों की श्रेणी में रखने लायक मानव थे और उनका ये मानना की वह हिन्दू मुस्लमान की संकल्पना से परें हैं ये तो और भी सराहनीय बात है। जो आज के भेद भाव रखने वाले समाज के लिए एक आदर्श है। साईं पूजनीय हैं और रहेंगे , इन धर्मगुरुओं की बहस सिर्फ खुद को और अपने ज्ञान को श्रेष्ठ बताने के लिए हो रही है। आखिर विवाद में ही प्रचार का सुख छिपा है। ये सभी धर्म गुरु अच्छे से जानते हैं।
आज कल के साधु संत खुद को पूजनीय बनाने के फेर में क्या - क्या नहीं करते ये तो जग जाहिर है। उनके बस में जो कुछ नहीं भी होता वह भी कर के लोगो को बेवकूफ बनाना उन्हें खूब आता है। इसी लिए बेहतर यही है कि जो भी हमारे आदि कुल देवी देवता है उन्हें ही पूजें और आराधना करें। एक नयी धर्म चर्चा के जन्म लेने से एक विवाद और खड़ा हो गया कि शिर्डी के साईं क्या वाकई भगवान है या नहीं। इसी विषय पर चर्चा के लिए धर्म संसद बैठाई गयी है। अनेकों धर्म अखाड़ों और शंकराचार्यों ने अपने अपने तर्कों द्वारा ये सिद्ध करने का प्रयास किया कि साईं कोई भगवान नहीं हैं। उनके अनुसार सनातन परंपरा में पंच देव - शिव ,शक्ति ,गणेश, विष्णु और सूर्य ही हैं। और ये ही पूजनीय हैं। बाकी के 24 अवतार इन्ही के विभिन्न रूप हैं। हमारी संस्कृति के अनुसार इन्ही देवी देवताओं की पूजा अर्चना होनी चाहिए।
साईं असत है ,अवचेतन है , और अचेतन है इसलिए उन्हें गुरु भी नहीं माना जा सकता। और तो और साईं न तो खुद को हिन्दू मानते थे न ही मुसलमान तब उन्हें किस आधार पर पूजा जाये ये तर्क रखे जा रहें हैं। इन सभी तर्कों को देने वाले कभी अपने चरित्रों की छानबीन करें तो फर्क साफ़ हो जाएगा। साईं की मृत्यु 1918 में हो गयी इस लिए हमने जो भी सुना है उसे ही मानते है। उसी के अनुसार साईं एक निश्छल , दयालु ,परोपकारी और सहृदय मानव थे। हो सकता है कि उन्होंने देवताओं जैसे कोई काम न किये हों पर अपने इन गुणों के चलते उन्होंने परोपकार की जो मिसाल दी है वह प्रशंसनीय है। अगर उन्हें पूजा न भी जाए तो उनको आदर्श मानने से तो कोई नहीं रोक सकता। शायद इसी वजह से लोग उन्हें पूजने भी लगे। शक्ति का होना या न होना अपने आचरण पर निर्भर करता है। कैसे ये छुटभइये साधु संत अपनी शक्ति प्रदर्शन के लिए नए नए करतब दिखाते है कि जेब में लाल रुमाल रखो ,दाहिने हाथ में काला धागा बांधो आदि आदि। जिस से जो न होना होगा वह भी हो जायेगा। क्या ये सही है ? क्या ये लोग अपनी पूजा नहीं करवा रहे ? इनके टीवी कार्यक्रमों में देखिये कि कैसे ये भगवान की तरह लोगो के बीच बैठ कर उनकी भावनाओं को अपने वश में करते हैं। और लोग है कि अच्छा होने की चाह में इनको मान दिए जाते हैं।
यदि इस नजरिये से देखें तो साईं ने कब ये कहा की मुझे भगवान की तरह पूजो। उनसे सम्बंधित किसी भी वाकये में या सन्दर्भ में उन्हें ये कहते और मनवाते नहीं पाया जा सकता की मुझे ईश्वर की तरह पूजा जाए। हाँ ये जरूर है कि उनसे प्रेम करने वाले उन्हें अपने गुरु या आदर्श के रूप में मानने लगे। इस में उनका न कोई योगदान है न ही दबाव। साईं एक सच्चे मानव के रूप जन्मे और वैसे ही चले गए अगर उन्हें एक आदर्श के रूप में याद किया जा रहा है तो इस में कोई बुराई नहीं। उनके व्यव्हार को अपने लिए मिसाल बना कर याद करना अच्छी बात है। क्या हम गांधी जी को या नेहरू को उनके विचारों और व्यवहारों के लिए नहीं याद करते ? उसी तरह साईं को भी याद ही किया जा रहा बस याद करने का तरीका शायद पूजा जैसा कर दिया गया है। हमारे स्वर्गीय पीढ़ी को भी तो हम दिया बत्ती करके ही याद करते हैं। जरूरी यह है कि वे लोग जिन का आचरण अनुसरण के योग्य हो उन्हें याद किया जाए। कैसे … ये याद करने वाले की श्रद्धा पर निर्भर करता है। मेरी नज़र में साईं वाकई पूजनीय संतों की श्रेणी में रखने लायक मानव थे और उनका ये मानना की वह हिन्दू मुस्लमान की संकल्पना से परें हैं ये तो और भी सराहनीय बात है। जो आज के भेद भाव रखने वाले समाज के लिए एक आदर्श है। साईं पूजनीय हैं और रहेंगे , इन धर्मगुरुओं की बहस सिर्फ खुद को और अपने ज्ञान को श्रेष्ठ बताने के लिए हो रही है। आखिर विवाद में ही प्रचार का सुख छिपा है। ये सभी धर्म गुरु अच्छे से जानते हैं।
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