सक्षमता का दोहरा आंकलन आवश्यक …………!
जब से गृहस्थ जीवन का प्रारंभ हुआ है तब से ये चलन है की पुरुष बाहर काम करेगा और स्त्री घर संभालेगी। जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए पुरुष धन जुटायेगा और स्त्री घर पर रहकर बड़े बुजुर्गों की सेवा और बच्चों का पालन पोषण करेगी। इस व्यवस्था में कोई खोट नहीं था। और इसी व्यवस्था की बदौलत घर सुरक्षित और समृद्ध बना रहता था। बच्चे स्त्री बुजुर्ग सभी अपनी अपनी जिंदगी घर की चारदीवारी में खुश हो कर जीते थे और फलते फूलते थे । पर अब सब कुछ बदल जाने से व्यवस्था का मूल रूप चरमरा सा गया है। अब ज्यादा धन और आधुनिक होने की चाह ने स्त्रिओं को घर से बाहर निकल काम पर जाने को मजबूर कर दिया है। जिस से घर की आवश्यकताएं नगण्य हो गयी है।एक अकेली स्त्री से ये उम्मीद लगाना की वह दोनों मैदान में बराबर की दौड़ लगा सकेगी यह कहाँ तक जायज है। नौकरी कर के धन कमाना और फिर घर में रहकर उन सभी कार्यो के प्रति भी जिम्मेदार रहना जो प्राचीनकाल से स्त्री के ही जिम्मे है। आज भले ही खाना बनाने के रोजगार में पुरुष वर्ग आ गया हो पर वह भी धन कमाने के लिए
न की परिवार में हाथ बटाने के लिए। बराबरी का दर्जा मिलने के बाद आज भी स्त्री पुरुष दोनों के एक साथ घर लौटने पर स्त्री से ही उम्मीद की जाती है की वह रसोई संभाले। उसकी थकान और परेशानी के कोई मायने नहीं। आज भी बच्चो का पालन पोषण करने में पुरुष खुद को असमर्थ समझता है। ईश्वर की बनाई व्यवस्था को इंसान ने चुनौती दी है उसका खामियाजा वह परिवार के विघटन ,कलेश ,कलह और तलाक जैसे नकारात्मक स्थितियों का सामना कर के चुकाता है। समय के साथ आगे बढ़ना सही निर्णय है और इसे भी गलत नहीं माना जा सकता कि औरत बाहर निकल कर काम न करें अपनी खुद की पहचान न बनाये। पर इस से घर की व्यवस्था का बिगड़ना एक गलत परिणाम है। कोई माने या न माने यह एक अमिट सत्य है कि ईश्वर ने औरत के अंदर जो गुण डाले हैं उसी की बदौलत आज विवाह और गृहस्थी जैसा बंधन अस्तित्व में है। औरत ही है जो शारीरिक ,मानसिक और व्यक्तिगत रूप में सही मायने में परिवार की रीढ़ की हड्डी है।
बात सिर्फ इतनी सी है की यदि किसी परिवार को कमाऊं पत्नी की लालसा हो तो उसके लिए पहले खुद को तैयार करना चाहिए कि उन का व्यव्हार और कार्य क्या होंगे। स्त्री सक्षम है पर उसके समर्थता को उसकी मजबूरी बना देना उचित नहीं है। यदि एक स्त्री बाहर काम नहीं भी करती तो भी आप उसके कार्य का आंकलन करें , वह भी एक बड़े योगदान के रूप में सामने आता है। दिन भर घर के कामों में उलझे रहना फिर भी खुश होकर सबके लिए सब कुछ करना यही एक गृहणी का दायित्व है। इसे वह बखूबी निभाती भी है। बाहर के देशों में स्त्री यदि कामकाजी है तो वह आधे दिन ही कार्य करती है जबकि उसे पूरे दिन का पारिश्रमिक मिलता है। उसकी संस्था यह मानती है कि घर पर जाकर भी उसे सारे कार्य सँभालने पड़ते हैं। और उन कार्यों का भी पारिश्रमिक मिलने से स्त्री अपनी संस्था के प्रति ईमानदार होकर पूरा आधा दिन कार्य को समर्पित कर देती है। संतुष्ट स्त्री घर और कामकाज दोनों से खुश होकर दोनों के प्रति न्याय करती है। जबकि भारतीय स्त्री नौकरीपेशा होने के बावजूद घर और समाज की जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो पाती। एक कामकाजी महिला यदि अपने रोजाना के कार्यों के निष्पादन के लिए नौकरानी रखती है तो उस कार्य के लिए वह उसे भुगतान करती है। पर यदि यही कार्य घर में रहने वाली स्त्री करे तो उसका आँकलन उसकी जिम्मेदारी से किया जाता है। तभी तो ये कहना उचित है कि घर का कार्य एक thankless और non payable job है। जिसका मूल्य उसे सिर्फ प्यार के रूप में मिलता है और विडंबना देखिये कि स्त्री का भोलापन उसे इसी में खुश रहने के लिए मना भी लेता है।थोड़ा सा प्यार और दुलार पा कर वह सारे कार्य हंसी ख़ुशी करती है।एक सर्वे के अनुसार स्त्री के घर के कार्यों का आर्थिक रूप से आंकलन करें तो भारत की GDP 40% बढ़ जाएगी। जरूरी नहीं की हर स्त्री कामकाजी ही हो उसके योगदान को हर रूप में सहर्ष स्वीकार करना ही जीवन के सही मायने है। परिवार का एक अच्छे संस्कारों में फलना फूलना जीवन को सही दिशा और गति देता है। इस लिए घर में रह कर घर चलाने को भी आर्थिक दृष्टि से देख कर उसकी सही कीमत का अंदाजा लगाये और तब स्त्री को सही सम्मान दें।
जब से गृहस्थ जीवन का प्रारंभ हुआ है तब से ये चलन है की पुरुष बाहर काम करेगा और स्त्री घर संभालेगी। जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए पुरुष धन जुटायेगा और स्त्री घर पर रहकर बड़े बुजुर्गों की सेवा और बच्चों का पालन पोषण करेगी। इस व्यवस्था में कोई खोट नहीं था। और इसी व्यवस्था की बदौलत घर सुरक्षित और समृद्ध बना रहता था। बच्चे स्त्री बुजुर्ग सभी अपनी अपनी जिंदगी घर की चारदीवारी में खुश हो कर जीते थे और फलते फूलते थे । पर अब सब कुछ बदल जाने से व्यवस्था का मूल रूप चरमरा सा गया है। अब ज्यादा धन और आधुनिक होने की चाह ने स्त्रिओं को घर से बाहर निकल काम पर जाने को मजबूर कर दिया है। जिस से घर की आवश्यकताएं नगण्य हो गयी है।एक अकेली स्त्री से ये उम्मीद लगाना की वह दोनों मैदान में बराबर की दौड़ लगा सकेगी यह कहाँ तक जायज है। नौकरी कर के धन कमाना और फिर घर में रहकर उन सभी कार्यो के प्रति भी जिम्मेदार रहना जो प्राचीनकाल से स्त्री के ही जिम्मे है। आज भले ही खाना बनाने के रोजगार में पुरुष वर्ग आ गया हो पर वह भी धन कमाने के लिए
न की परिवार में हाथ बटाने के लिए। बराबरी का दर्जा मिलने के बाद आज भी स्त्री पुरुष दोनों के एक साथ घर लौटने पर स्त्री से ही उम्मीद की जाती है की वह रसोई संभाले। उसकी थकान और परेशानी के कोई मायने नहीं। आज भी बच्चो का पालन पोषण करने में पुरुष खुद को असमर्थ समझता है। ईश्वर की बनाई व्यवस्था को इंसान ने चुनौती दी है उसका खामियाजा वह परिवार के विघटन ,कलेश ,कलह और तलाक जैसे नकारात्मक स्थितियों का सामना कर के चुकाता है। समय के साथ आगे बढ़ना सही निर्णय है और इसे भी गलत नहीं माना जा सकता कि औरत बाहर निकल कर काम न करें अपनी खुद की पहचान न बनाये। पर इस से घर की व्यवस्था का बिगड़ना एक गलत परिणाम है। कोई माने या न माने यह एक अमिट सत्य है कि ईश्वर ने औरत के अंदर जो गुण डाले हैं उसी की बदौलत आज विवाह और गृहस्थी जैसा बंधन अस्तित्व में है। औरत ही है जो शारीरिक ,मानसिक और व्यक्तिगत रूप में सही मायने में परिवार की रीढ़ की हड्डी है।
बात सिर्फ इतनी सी है की यदि किसी परिवार को कमाऊं पत्नी की लालसा हो तो उसके लिए पहले खुद को तैयार करना चाहिए कि उन का व्यव्हार और कार्य क्या होंगे। स्त्री सक्षम है पर उसके समर्थता को उसकी मजबूरी बना देना उचित नहीं है। यदि एक स्त्री बाहर काम नहीं भी करती तो भी आप उसके कार्य का आंकलन करें , वह भी एक बड़े योगदान के रूप में सामने आता है। दिन भर घर के कामों में उलझे रहना फिर भी खुश होकर सबके लिए सब कुछ करना यही एक गृहणी का दायित्व है। इसे वह बखूबी निभाती भी है। बाहर के देशों में स्त्री यदि कामकाजी है तो वह आधे दिन ही कार्य करती है जबकि उसे पूरे दिन का पारिश्रमिक मिलता है। उसकी संस्था यह मानती है कि घर पर जाकर भी उसे सारे कार्य सँभालने पड़ते हैं। और उन कार्यों का भी पारिश्रमिक मिलने से स्त्री अपनी संस्था के प्रति ईमानदार होकर पूरा आधा दिन कार्य को समर्पित कर देती है। संतुष्ट स्त्री घर और कामकाज दोनों से खुश होकर दोनों के प्रति न्याय करती है। जबकि भारतीय स्त्री नौकरीपेशा होने के बावजूद घर और समाज की जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो पाती। एक कामकाजी महिला यदि अपने रोजाना के कार्यों के निष्पादन के लिए नौकरानी रखती है तो उस कार्य के लिए वह उसे भुगतान करती है। पर यदि यही कार्य घर में रहने वाली स्त्री करे तो उसका आँकलन उसकी जिम्मेदारी से किया जाता है। तभी तो ये कहना उचित है कि घर का कार्य एक thankless और non payable job है। जिसका मूल्य उसे सिर्फ प्यार के रूप में मिलता है और विडंबना देखिये कि स्त्री का भोलापन उसे इसी में खुश रहने के लिए मना भी लेता है।थोड़ा सा प्यार और दुलार पा कर वह सारे कार्य हंसी ख़ुशी करती है।एक सर्वे के अनुसार स्त्री के घर के कार्यों का आर्थिक रूप से आंकलन करें तो भारत की GDP 40% बढ़ जाएगी। जरूरी नहीं की हर स्त्री कामकाजी ही हो उसके योगदान को हर रूप में सहर्ष स्वीकार करना ही जीवन के सही मायने है। परिवार का एक अच्छे संस्कारों में फलना फूलना जीवन को सही दिशा और गति देता है। इस लिए घर में रह कर घर चलाने को भी आर्थिक दृष्टि से देख कर उसकी सही कीमत का अंदाजा लगाये और तब स्त्री को सही सम्मान दें।
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