शारीरिक सीमाओं में कैद स्त्री…………!

एक नारी के जीवन का सत्य सिर्फ वही समझ सकती है। पुरुष समाज ने इस सत्य को स्वीकारने के बजाये इस का इस्तेमाल करना बेहतर समझा। पता नहीं ईश्वर के भी मन में क्या सूझी की उसने सारी तकलीफों का ठीकरा औरत के ही सर फोड़ दिया। पुरुष इन सारी समस्याओं से बरी अपनी ही मौज में जी कर औरत का भरपूर इस्तेमाल करता रहा है।   इसी सन्दर्भ में एक चुटकुला याद आया........... एक बार सारी  स्त्रियां ईश्वर के पास गयी और कहा की सब तकलीफें औरत के ही भाग्य में लिख दी कुछ तो पुरुषों को दो , ऐसा करो की प्रसव की असहनीय पीड़ा बच्चे के पिता को दे दो जिस से उसे भी उस दर्द का अहसास हो। ईश्वर ने इसे करने से मना किया कहा की यह उचित न होगा परन्तु औरतें न समझीं  और परमेश्वर को किसी भी तरह राजी कर आ गयीं। अब किसी भी औरत को प्रसव के दौरान दर्द नहीं सहना पड़ेगा यह सोच कर जीवन चलने लगा परन्तु हुआ क्या कि प्रसव श्रीमती गुप्ता को था और दर्द श्री वर्मा को प्रारम्भ हो गए।  अर्थ तो समझ ही गए होंगे ,कि प्रभु ने क्यों इस तरह से सारी व्यवस्थाएं बनाई है। परमेश्वर ने इन सारी स्थितियों के लिए औरत का चुनाव इस लिए किया क्योंकि वह अकेली इसे बखूबी सँभाल सकती है। पुरुष के अंदर न तो इतना सामर्थ्य है न ही इतनी सहनशीलता और धीरज।
                जन्म के साथ ही नारी कई समस्याओं के बीच में रहकर बड़ी 
होती है। बचपन में भ्रूण हत्या के डर से जीत कर जीना प्रारम्भ करना 
, बालिका बनने  पर अपनों के बीच इस डर के साथ पनपना कि कौन कब उसको अपनी वासना के लिए इस्तेमाल कर ले ( जबकि उम्र और शरीर दोनों से ही वह बच्ची है ),और वयस्क होने पर जब वह खुद अपनी दुनिया बनाना चाहती हो तब भी उसे परिवार और समाज के इस बंधन में जीना पड़ता है कि उसे अपने शरीर की सीमा रेखा की मर्यादा नहीं लांघनी चाहिए। ये सत्य है की ईश्वर ने शरीर बनाते समय औरत के हिस्से ज्यादा कष्ट लिखे परन्तु इस वजह से उसका सामान्य जीवन का हक़ छीन लेना सही है क्या ? यदि गहराई में जा कर देखे और समझें तो औरत की तकलीफों का पिटारा सा ही खुल जाएगा जो सिर्फ उसके शरीर की बनावट के कारण जुटी हैं। यदि परमेश्वर ने संतानोत्पत्ति के लिए स्त्री पुरुष दोनों में खास गुण डाले हैं तो उसका खमियाजा हर माह के उन 5 खास दिनों में स्त्री ही क्यों भुगतती है। उस कष्ट से उबर कर भी वह अपने रोजाना  के कार्य कलाप सहनशीलता से निपटाती है। क्योंकि घर चलाना और अब तो कमाना भी औरत की ही जिम्मेदारी है। स्त्री के लिए घर की दहलीज में वापस लौटने के लिए समय का बंधन रखा गया है कि इस समय से पहले घर लौट आना। उसे सुरक्षा के अलावा घर सँभालने की जिम्मेदारी जो निभानी है परंतु पुरुषो का क्या ?
                                   अभी हाल में ही एक समाचार पत्र में एक विज्ञापन के जरिये पुरुषों को स्त्री के सम्मान के लिए चेताया गया कि भाई इस बार राखी नहीं ................ सही भी है , ऐसा ही होना चाहिए। क्योंकि तुम जैसा 
ही कोई  भाई या बेटा किसी स्त्री के पतन का कारण बन रहा है। अपनी बहन को दहलीज़ में रहने की सीख देने वाला भाई किसी दूसरे की बहन की अस्मिता की धज्जियाँ उड़ाते जरा भी अफ़सोस नहीं करता। ऐसा नहीं की पुरुष समाज औरत की कमजोरी जानता नहीं पर इस में उसके पीछे ढाल बन कर खड़े रहने के बजाये उसने हमेशा उसे कुचला है। इसका खमियाजा उन्हें भी भुगतना पड़ता है क्योकि जिस औरत के साथ कुछ अनिष्ट होता है वह भी तो किसी की बहन बेटी पत्नी या अन्य किसी भी रिश्ते से जुडी होती है। औरत की शारीरिक तकलीफों को यदि एक तरफ रख दे तो औरत मानसिक रूप से पुरुषों से कही ज्यादा मजबूत है। इसी लिए परमात्मा ने उसे चुना ताकि वह सहनशीलता से जीवन की गाड़ी चला सके। किस तरह एक औरत अपने पहले प्रसव पीड़ा को भूल एक नई संतान को जन्म देने को तैयार हो जाती है या किस तरह एक औरत अपने साथ हुए दुर्व्यवहार को पीछे छोड़ आगे की दुनिया में प्रवेश कर जाती है यह देखने काबिल है। यही ईश्वर की अतुल्य रचना है जिस में कोमल मन के साथ ही एक कठोर साहस छिपा है। 
            हमेशा से ही नारी ने ईश्वर को खुद की कृति पर गर्व करने का मौका दिया जबकि पुरुषों ने खुद पर सिवाय शर्मिंदा होने के कुछ नहीं पाया।  
           आज ईश्वर भी कहीं न कहीं पुरुषों के गुणों को लेकर अफ़सोस 
करता होगा की रचना में मुझसे इतनी बड़ी भूल कैसे हो गयी। पर अब उसकी भूल को हमें अपने आचरण और क्रिया कलापों से सुधारना है ये उसके लिए हमारी और से भेंट है। जिस ईश्वर को हम रोजाना प्रसाद से भोग लगते हैं उसे ये भेंट देना उसकी कृति का सम्मान करने जैसा होगा। इस लिए जरूरी है कि ईश्वर प्रदत्त गुणों को एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज के निर्माण में प्रयोग करें और उसे भी हम पर गर्व करने का मौका दें। 
   

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