दो पहिया वाहनों का वर्गीकरण
दो पहिया वाहनों का वर्गीकरण … !
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जब कभी भी सड़क पर निकलती हूँ तो बहुत ही अफ़सोस होता है। हर कहीं बस एक ही दृश्य…… तेज रफ़्तार से गड़ियां दौड़ते युवक युवतियां। क्या हो गया है आज की पीढ़ी को। उन्हें जिंदगी की कीमत क्या समझायी जाये जो खुद को सब से ज्यादा समझदार समझते हैं। जिन के दुःख सुख से जुड़ा एक भरा पूरा परिवार बैठा रहता है। पर सब कुछ बेकार। विकास के चक्र ने जो हमसे सब से बड़ा सुख छीना है वह है हमारा धैर्य। घर से निकलने की जल्दी और फिर कभी घर वापस न जाने की जल्दी। अर्थात जब तेज रफ़्तार गाड़ी से घटी किसी दुर्घटना में जीवित रहोगे ही नहीं तो कैसा घर और किसका घर। इस लिए ही ये कहना उचित है की आज कल के बच्चो को दुनिया में आने की जल्दी और फिर दुनिया से जाने की जल्दी मची रहती है। और इस का खमियाजा उनको जन्म देने वाले लोग या उनका परिवार भुगतता है। क्या सही सलामत और सुरक्षित रहने में उन्हें खतरा नजर आता है जिस से दुर्घटना के नए नए रास्ते तलाशते रहते हैं। इस तरह की दुर्घटनाओं में सबसे दुखद बात ये है कि तेज रफ्तार गाड़ी की चपेट में आने वाला कोई अन्य इस का भीषण शिकार बनता है। जो कि हो सकता है सही रफ़्तार और साइड पर हो। आज जब पैसे की कीमत इंसान की नजर में इतनी ज्यादा हो गयी है तब उसे कम से कम ये तो समझना चाहिए कि ये भी एक तरह की फिजूलखर्ची ही हुई कि बैठे बिठाये दुर्घटना को न्यौता दे कर इलाज का अनावश्यक खर्च बढ़ाया जाये साथ ही शरीर की भयंकर तकलीफ का सामना भी किया जाए । ट्रैफिक नियमों की अनदेखी तो आजकल के युवाओं का फैशन बन गया है। इस के लिए आज कल का सिनेमा भी जिम्मेदार है। धूम जैसी मूवी ने युवाओं को एक नए चलन से प्रभावित किया वह है फर्राटेदार बाइक दौड़ाते हुए सबसे आगे निकल जाना। इस मूवी ने युवा वर्ग को एक नए खतरे से जोड़ दिया है वह है जीवन को नगण्य समझ सिर्फ स्मार्ट दिखने का चस्का। इस समस्या का क्या कोई उपाए है जिस से इसे रोका जाए ?
हाँ .... इस के लिए सब से पहले दो पहिया गाड़ी बनाने वाले निर्माताओं को एक नया परिक्षण शुरू करना होगा।
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जब कभी भी सड़क पर निकलती हूँ तो बहुत ही अफ़सोस होता है। हर कहीं बस एक ही दृश्य…… तेज रफ़्तार से गड़ियां दौड़ते युवक युवतियां। क्या हो गया है आज की पीढ़ी को। उन्हें जिंदगी की कीमत क्या समझायी जाये जो खुद को सब से ज्यादा समझदार समझते हैं। जिन के दुःख सुख से जुड़ा एक भरा पूरा परिवार बैठा रहता है। पर सब कुछ बेकार। विकास के चक्र ने जो हमसे सब से बड़ा सुख छीना है वह है हमारा धैर्य। घर से निकलने की जल्दी और फिर कभी घर वापस न जाने की जल्दी। अर्थात जब तेज रफ़्तार गाड़ी से घटी किसी दुर्घटना में जीवित रहोगे ही नहीं तो कैसा घर और किसका घर। इस लिए ही ये कहना उचित है की आज कल के बच्चो को दुनिया में आने की जल्दी और फिर दुनिया से जाने की जल्दी मची रहती है। और इस का खमियाजा उनको जन्म देने वाले लोग या उनका परिवार भुगतता है। क्या सही सलामत और सुरक्षित रहने में उन्हें खतरा नजर आता है जिस से दुर्घटना के नए नए रास्ते तलाशते रहते हैं। इस तरह की दुर्घटनाओं में सबसे दुखद बात ये है कि तेज रफ्तार गाड़ी की चपेट में आने वाला कोई अन्य इस का भीषण शिकार बनता है। जो कि हो सकता है सही रफ़्तार और साइड पर हो। आज जब पैसे की कीमत इंसान की नजर में इतनी ज्यादा हो गयी है तब उसे कम से कम ये तो समझना चाहिए कि ये भी एक तरह की फिजूलखर्ची ही हुई कि बैठे बिठाये दुर्घटना को न्यौता दे कर इलाज का अनावश्यक खर्च बढ़ाया जाये साथ ही शरीर की भयंकर तकलीफ का सामना भी किया जाए । ट्रैफिक नियमों की अनदेखी तो आजकल के युवाओं का फैशन बन गया है। इस के लिए आज कल का सिनेमा भी जिम्मेदार है। धूम जैसी मूवी ने युवाओं को एक नए चलन से प्रभावित किया वह है फर्राटेदार बाइक दौड़ाते हुए सबसे आगे निकल जाना। इस मूवी ने युवा वर्ग को एक नए खतरे से जोड़ दिया है वह है जीवन को नगण्य समझ सिर्फ स्मार्ट दिखने का चस्का। इस समस्या का क्या कोई उपाए है जिस से इसे रोका जाए ?
हाँ .... इस के लिए सब से पहले दो पहिया गाड़ी बनाने वाले निर्माताओं को एक नया परिक्षण शुरू करना होगा।
दो पहिया गाड़ियों को दो श्रेणी में विभाजित करना होगा, पहली रेसर बाइक ,दूसरी सिटी बाइक। रेसर बाइक जो की लम्बी रेस या खाली ट्रैक पर चलाने योग्य होती है। उनके लिए स्पीड लिमिट उनकी आवश्यकता के अनुसार तय हो। जबकि जो भी दो पहिया वाहन सिटी बाइक के तौर पर बेचा जा रहा है उनकी स्पीड लिमिट शहर की जनसँख्या और ट्रफिक दबाव के अनुसार निर्धारित हो। जिन गाड़ियों को शहर में चलना है उनके लिए आप स्वयं सोचें की क्या जरूरी है की उन के स्पीडोमीटर में 100 या 120 तक की स्पीड निहित हो। जब की उन्हें भीड़ भाड़ वाले इलाकों में से गुजर कर ट्रैफिक का सामना भी करना है। जब सिटी बाइक में अधिकतम स्पीड लिमिट ही 60 या 70 की होगी तो कितनी भी तेज दौड़ना चाह कर भी इस से ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाएंगे। और फिर जब चलने की स्पीड कम होगी तो रुकने में कम नुकसान और समय लगेगा। ये उपाए इस लिए आवश्यक है क्योंकि इंसान तो सुधरेगा नहीं इस लिए मशीन को ही ऐसा बनाना पड़ेगा की अधिक से अधिक दुरुपयोग करने के बावजूद भी जान का सवाल न खड़ा होए। मशीन को इंसान ने बनाया पर ऐसा क्यों किया की आज यही मशीन उसके लिए एक खतरे के रूप में सामने आ गयी है क्या उस खतरे को सामने लाने वाले हम स्वयं नहीं।इस लिए सुधार भी अब हम स्वयं ही करेंगे जिस से आने वाली पीढ़ी सुरक्षित और बेहतर जिंदगी जी सकें। आज हमें इस तरह के निर्णय को अपना कर ये दिखाना होगा की हम मशीन को चलाते है न की मशीन हमें।
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