निर्भया बरसी पर मंथन ……………!

कल 16 दिसंबर थी । इतिहास का वह काला दिवस जिसे निर्भया के नाम से जाना जाता रहेगा। इस दिन एक ऐसे हादसे ने जन्म लिया जो कि  पूरे हिदुस्तान के लिए शर्म का कारण बन चुका है।  16 दिसंबर 2012 की रात निर्भया ने वह तकलीफ झेली जिसे कुछ नामर्दों ने अपने मनोरंजन का सामान बना लिया। जब कभी भी किसी महिला के साथ कुछ अन्याय होता है उसमे न जाने क्यों निर्भया नजर आने लगती है। तमाम सरकारी कोशिशों और अनेकों आंदोलनों के बाद भी आज दो वर्षों में क्या कुछ बदला है …नहीं ,बल्कि आज अपराधों में और भी बढ़ोत्तरी हुई है । लगभग ढाई गुना अपराध बढ़ चुके हैं प्रति मिनट एक स्त्री बलात्कार और छेड़खानी का शिकार हो रही हैं। हालांकि पुलिस  द्वारा केस दर्ज करने के मामले में तेजी आयी है पर क्या इस से कानून की प्रक्रिया बदली ? आज भी बलात्कारी बेख़ौफ़ खुले घूमते नजर आते हैं। अभी हाल ही में एक सर्वे द्वारा ये पता लगाने की कोशिश की गयी कि महिलायों के प्रति अपराध किस हद तक कम हुए या बढे हैं। आंकड़े इस के गवाह है।  सन 2013 में भारत में महिला अपराधों की संख्या करीब 309546 थी । जो की प्रतिदिन करीब 850 का आंकड़ा छूते  हैं। अर्थात हर दूसरे मिनट एक महिला अन्याय का शिकार होती है।   पिछले वर्ष  बलात्कार के  33787 मामले दर्ज कराये गए यानि प्रतिदिन करीब 95 बलात्कार। छेड़खानी के 70739 मामले और यौन उत्पीड़न में करीब 12589 मामले दर्ज हुए। 51881 महिलाऐं अपहरण और फिर बलात्कार का शिकार हुईं।   8087 महिलाएं  विवाहोपरांत दहेज़ हत्या के रूप में बलि चढ़ा दी गयी।  ये आंकड़े ये साबित करते हैं कि हर माह 180 और रोजाना करीब 6 महिलाऐं किसी न किसी रूप में प्रताड़ित हो रही हैं। हर दूसरे मिनट एक महिला अन्याय का शिकार हो रही हैं। सोचने का विषय ये है की ये आंकड़े वह है जो की निगाह में आये वरना बहुत सी घटनाएं तो जमीनी स्तर पर ही दबा कर खत्म कर दी जाती हैं और पुलिस तक पहुँचने का सपना खत्म हो के रह जाता है। 
                                                                   क्या किया जा सकता है जिस से ऐसी घटनाओं को रोका जा सके और हर महिला को खुश और सुरक्षित महसूस कराया जा सके। इस के लिए सब से ज्यादा जरूरी है zero tolerance power  को बढ़ाना।  जिस से विरोध करने का हौसला बढे। आप की समझदारी जिस भी कार्य को गलत मानती है उसका विरोध करने के लिए आगे बढ़ें।  आज अगर कही छेड़छाड़ होती दिख भी जाती है तो हर कोई ये सोच कर चुप रह जाता है कि क्यों दूसरे के फटे में टांग अड़ाई जाए। सिर्फ अपने काम से ही मतलब रखना वाली नियत ने इन दहशतगर्दों के हौसले को इस हद तक बढ़ा दिया है की अब सार्वजनिक स्थान भी इस से अछूते नहीं रहें हैं। गलत को गलत के ही रूप में हर हाल में स्वीकार करना होगा। चाहे किसी भी परिस्थिति में हो सामूहिक विरोध अपराधियों के छक्के छुड़ाने के लिए काफी है। दो या चार अपराधी समूह का मुकाबला नहीं कर सकते। ये भी एक सोचने का विषय है कि हर स्थान पर पुलिस का होना असंभव है इस लिए अपने आस - पास के ही लोग मदद के लिए आगे आएं तब बात बनेगी। ये जागरूकता पहले स्वयं के अंदर लानी होगी कि हम भी उसी समाज का हिस्सा है जिस में ये अपराध बढ़ रहें हैं।  हर किसी को ये सोचना होगा की उनके परिवार की भी महिलाऐं भी इसी तरह सड़कों पर अव्यवस्था का शिकार हो सकती हैं। जरूरी है कि सब मिल कर एक साथ सोचें। सोचें कि कैसे इस सड़े गले system को बदला जाए जिस से अपराधियों के मन में डर पैदा हो। सब से पहले कानून की नीतियों को revise करने की आवश्यकता है। जिस में सुनवाई और सबूत के फेर में सब कुछ खत्म हो जाता है। सच सच नहीं रहता और झूठ के वारे न्यारे हो जाते हैं। यही  सब कुछ बदल कर एक नया अध्याय शुरू करने की जरूरत है जिस में औरत गर्व से खुलेपन के साथ जी सकें और कह सकें की मैं एक प्रगतिशील नारी हूँ …………!   

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