स्वर्ग से बचपन का नरक……!
कल एक और भारतीय कैलाश सत्यार्थी जी को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। जो कि हमारे लिए गर्व की बात है। और उस से ज्यादा गर्व की बात ये है कि यह पुरस्कार शांति की श्रेणी में दिया गया। आज जब पूरा विश्व अशांत हो कर ऐसे कार्यों में लिप्त है जिन से सिर्फ स्वयं का भला हो ,ऐसे में दूसरों के लिए किये गए कार्यों के आधार पर शांति का नोबल बहुत महत्व रखता है। आज ख़ुशी की बात है पर इस के साथ जो प्रश्न उठता है वह ये कि समाज के लिए यह कोई गर्व की बात नहीं कि आज भी बच्चे अपना सामान्य जीवन जीने से महरूम हैं। पहली बात तो ये कि हम ऐसे बच्चे को पैदा ही क्यों करते हैं जिन के पालन पोषण की क्षमता हममे नहीं है। दूसरा ये की यदि बच्चों की संख्या वहन क्षमता से बाहर है तो ये उनकी नहीं अभिभावकों की समस्या है और माता पिता होने के नाते उन को उनके लिए कार्य करना चाहिए। यदि माता पिता जीवन भर मजदूरी कर जीवन काटते है तो बच्चा भी यही करें ये आवश्यक तो नहीं। ये सोचने का विषय है की उसे ऐसे तैयार करें कि वह और बेहतर निकल सके। जीवन को खुल कर जीने का सभी को हक़ है और इस हक़ के लिए हर बच्चा पढ़ेगा और खेलेगा। क्योंकि ये सही कहा गया है कि बचपन ही एक ऐसा समय होता है जब चिंता मुक्त जीवन जिया जा सकता है। वरना बड़े हो कर तो रोजी रोटी की चिंता जीवन को दीमक की तरह खोखला करने लगती है। और हम खुशियां भूल कर मशीन की तरह सिर्फ काम और धनोपार्जन में व्यस्त हो जाते हैं।
बचपन सोने की उस खान की तरह है जहाँ से हमेशा खरा सोना ही निकलेगा न की मिलावटी पीतल। सब कुछ सच्चा और साफ़। उसे समाज की गन्दगी में डालकर मैला हम बनाते हैं। सत्यार्थी जी ने जिन भी बच्चो को जीवन में नरक भोगने से मुक्ति दिलाई है उस के लिए उसके अभिभावकों को तलब किया जाना चाहिए। बच्चों के लिए निर्णय लेने वाले उनके माता पिता ही होते हैं और सही गलत भी बेहतर जानते है। ऐसे में कोई बच्चा खुद से कैसे गुलामी के दलदल में फंसेगा। समाज में रह रहे अभिभावक समाजिक गंदगी से वाकिफ न हो ये तो नहीं हो सकता। लेकिन वह सिर्फ कमाने वाले दो ज्यादा हाथो के चक्कर में छोटे छोटे हाथों को बेचने से बाज नहीं आते। जीवन सब अमूल्य है और हर किसी को ईश्वर ने ये हक़ दिया है कि वह अपना जीवन अपने तरीके से जिए। ऐसे में जिन अभिभावकों को अपना भगवान मानो वही जीने का हक़ छीन ले ये नाइंसाफी ही तो है। बाल श्रम या बाल मजदूरी अपराध इस लिए मानी जाती है क्योंकि जीवन में हर कर्म की एक निश्चित आयु निर्धारित की गयी है। और उस से पहले या उसके बाद उस की महत्ता खत्म हो जाती है। बचपन खेलने कूदने पढ़ने लिखने और चिंताओं से मुक्त रहने का समय है। इस के लिए हम सभी को अपने बच्चो से ये कभी भी नहीं छीनना चाहिए। उन्हें जीवन जीने दो ताकि वह कल के एक बेहतर नागरिक बन सकें।
कल एक और भारतीय कैलाश सत्यार्थी जी को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। जो कि हमारे लिए गर्व की बात है। और उस से ज्यादा गर्व की बात ये है कि यह पुरस्कार शांति की श्रेणी में दिया गया। आज जब पूरा विश्व अशांत हो कर ऐसे कार्यों में लिप्त है जिन से सिर्फ स्वयं का भला हो ,ऐसे में दूसरों के लिए किये गए कार्यों के आधार पर शांति का नोबल बहुत महत्व रखता है। आज ख़ुशी की बात है पर इस के साथ जो प्रश्न उठता है वह ये कि समाज के लिए यह कोई गर्व की बात नहीं कि आज भी बच्चे अपना सामान्य जीवन जीने से महरूम हैं। पहली बात तो ये कि हम ऐसे बच्चे को पैदा ही क्यों करते हैं जिन के पालन पोषण की क्षमता हममे नहीं है। दूसरा ये की यदि बच्चों की संख्या वहन क्षमता से बाहर है तो ये उनकी नहीं अभिभावकों की समस्या है और माता पिता होने के नाते उन को उनके लिए कार्य करना चाहिए। यदि माता पिता जीवन भर मजदूरी कर जीवन काटते है तो बच्चा भी यही करें ये आवश्यक तो नहीं। ये सोचने का विषय है की उसे ऐसे तैयार करें कि वह और बेहतर निकल सके। जीवन को खुल कर जीने का सभी को हक़ है और इस हक़ के लिए हर बच्चा पढ़ेगा और खेलेगा। क्योंकि ये सही कहा गया है कि बचपन ही एक ऐसा समय होता है जब चिंता मुक्त जीवन जिया जा सकता है। वरना बड़े हो कर तो रोजी रोटी की चिंता जीवन को दीमक की तरह खोखला करने लगती है। और हम खुशियां भूल कर मशीन की तरह सिर्फ काम और धनोपार्जन में व्यस्त हो जाते हैं।
बचपन सोने की उस खान की तरह है जहाँ से हमेशा खरा सोना ही निकलेगा न की मिलावटी पीतल। सब कुछ सच्चा और साफ़। उसे समाज की गन्दगी में डालकर मैला हम बनाते हैं। सत्यार्थी जी ने जिन भी बच्चो को जीवन में नरक भोगने से मुक्ति दिलाई है उस के लिए उसके अभिभावकों को तलब किया जाना चाहिए। बच्चों के लिए निर्णय लेने वाले उनके माता पिता ही होते हैं और सही गलत भी बेहतर जानते है। ऐसे में कोई बच्चा खुद से कैसे गुलामी के दलदल में फंसेगा। समाज में रह रहे अभिभावक समाजिक गंदगी से वाकिफ न हो ये तो नहीं हो सकता। लेकिन वह सिर्फ कमाने वाले दो ज्यादा हाथो के चक्कर में छोटे छोटे हाथों को बेचने से बाज नहीं आते। जीवन सब अमूल्य है और हर किसी को ईश्वर ने ये हक़ दिया है कि वह अपना जीवन अपने तरीके से जिए। ऐसे में जिन अभिभावकों को अपना भगवान मानो वही जीने का हक़ छीन ले ये नाइंसाफी ही तो है। बाल श्रम या बाल मजदूरी अपराध इस लिए मानी जाती है क्योंकि जीवन में हर कर्म की एक निश्चित आयु निर्धारित की गयी है। और उस से पहले या उसके बाद उस की महत्ता खत्म हो जाती है। बचपन खेलने कूदने पढ़ने लिखने और चिंताओं से मुक्त रहने का समय है। इस के लिए हम सभी को अपने बच्चो से ये कभी भी नहीं छीनना चाहिए। उन्हें जीवन जीने दो ताकि वह कल के एक बेहतर नागरिक बन सकें।
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