चिकित्स्कीय मामलों में कानून की दखलंदाजी…………!
एक बात जो हमेशा से मेरी समझ के परे रही है वह है मेडिकल माामलों में कानून की दखलंदाजी और नियमों के द्वारा उसे बांधना । अनेकों उदाहरण प्रस्तुत हैं जैसे इच्छामृत्यु का सवाल  , अवांछनीय गर्भपात  , बलात्कार के बाद गर्भपात , आत्महत्या , दुर्घटना के उपरांत त्वरित उपचार , आदि जैसे कुछ और भी मामले हैं।  जिन्हे कानून ने अपने हाथों में ले रखा है। जिन के लिए डॉक्टर भी स्वतंत्र नहीं है। उन्हें भी पहले एक लम्बी कानूनी प्रक्रिया से जूझना पड़ता है तभी वह आगे बढ़ सकते हैं । आज तक जिस धीमी चाल से कानून आगे बढ़ता रहा है क्या शरीर उतने समय तक उस तकलीफ के साथ आगे बढ़ सकता है। ये सोचने का विषय है………. कुछ मुद्दों पर विस्तार में चर्चा करें तो समझ में आएगा की ये चिकित्सिकीय मामले कानून में उलझ कर समाज में किस हद तक विसंगति पैदा कर रहें है। 
                         इच्छामृत्यु का सवाल ही ले  तो एक इंसान जो दर्द सहने की क्षमता पार कर चुका हो , वह अपनी इच्छा से मृत्यु मांग रहा हो ऐसे में कानून का उसे रोकना उसके कष्टों को और बढ़ाना होता है। इसके लिए डॉक्टरों को आजादी दी जानी चाहिए कि यदि अब मरीज में सामान्य जीवन जीने की कोई सम्भावना नहीं बची है और वह अपने कष्टों को ले कर बिस्तर पर पड़ा रहेगा। ऐसे में यदि वह इच्छामृत्यु की मांग करता है तो उसे स्वीकार किया जाना चाहिए। अरुणा शानबाग का उदाहरण उल्लेखनीय है। बलात्कार और दरिंदगी की शिकार अरुणा पिछले कई सालों से तकलीफ में बिस्तर पर पड़ी इच्छामृत्यु की मांग कर रही है पर कानून उन्हें उसी हालत में बनाये रखे हुए है। शायद उसे उस तकलीफ का तनिक भी अहसास नहीं जो वह हर पल सहती होगी। जीवन तभी तक जीने लायक होता है जब तक हम उसे ख़ुशी ख़ुशी अपनाते है और हंस कर जीते हैं। अब दूसरे उदाहरणों पर नजर डालें ,अवांछनीय गर्भपात या बलात्कार के बाद गर्भपात ,ये स्त्री का जायज हक़ होना चाहिए। बच्चे को जन्म देना या न देना ये स्त्री की इच्छा पर निर्भर होना चाहिए। अपनी कोख में रख कर संतान को जन्म देने वाली माँ जब तक मन से नहीं जुड़ेगी संतान के लिए भी ये अच्छा नहीं होगा। इस लिए ये स्त्री का निर्णय होना चाहिए की अमुक भ्रूण को वह संतान में बदलना चाहती है या नहीं। इसी प्रकार आत्महत्या का भी विश्लेषण करें। महान समाजशास्त्री दुर्खीम के अनुसार वह व्यक्ति कायर होता है जो आत्महत्या का प्रयास  करता है।  मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। मेरे अनुसार व्यक्ति को सब से प्यारा अपना जीवन लगता है। और यदि वह उसे खत्म करने का साहस जुटाता है तो वह कायर नहीं बल्कि बहादुर होता है। हाँ ये एक और सत्य इस से जुड़ा है की जीवन की कठिनाईयां उसे जीवन से ज्यादा भारी लगने लगती हैं। मरने का सिर्फ सोच कर ही देखें कँपकँपी आ जाती है। और फिर तुरत फुरत परिस्थितियों को सहेजना मुश्किल होता है। ऐसे में आत्महत्या के दोषी को दया की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। उसकी बिगड़ी स्थिति को सुधारने की कोशिशश की जानी चाहिए। इसी तरह दुर्घटना के मामले में कानून की दखलंदाजी के कारण कई लोग अपनी जान से हाथ गवा बैठते हैं। जब त्वरित उपचार की आवश्यकता हो तब कानून की लम्बी कार्यवाही का चक्क्कर मरीज की रही सही साँसे भी छीन लेता है। 
                      ये सत्य है कि कानून का ही डर आज समाज को  सुचारू चला पाने में सक्षम हो पाया है। पर चिकित्स्कीय मामलों में इसे आजादी दे देनी चाहिए। जिस से डॉक्टर और आजाद हो कर जान बचाने की ड्यूटी पूरी कर सकें। क्योंकि शरीर सिर्फ अपनी ही सुनता है।   

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