कांसे की थाली और मनुहार

  कांसे वाली थाली और मनुहार

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कांसे की थाली.. करीने से एक ओर भात....भात के ऊपर जगह बनाकर सब्ज़ी...शेष हिस्से में दाल...और दाल में घर के घी की छौंक की सुगंध......भात के ही एक तरफ प्याज़ और मिर्ची साथ रहते..भात के एक किनारे अचार...।  बाईं ओर एक गिलास और लोटे में पानी ....और परोसने वाली चाहे अजिया, माँ, चाची, बुआ या  कोई भी हो  बीच बीच में पूछ जाता कि और क्या दें....

★सनद रहे क्या लोगे, क्या चाहिए कभी नहीं कहा गया....

       भोजन हेतु बैठने को पीढा.......स्नान किये बिना रसोई के भीतर तो क्या किनारे से भी कोई नहीं जा सकता था...बाहर के कपड़े पहन कर भोजन करना वर्जित था.... इसी कारण से लोग स्नान करके सीधे भोजन कर लेते थे।

ये हमारी पुरातन परंपरा कितनी सात्विक है...न कटोरी - न चम्मच ..न कांटा...। 

        इसे त्याग कर आज हम जूते, पहन कर खा रहे हैं... जूते पहन कर खाना समय की मजबूरी भी है..जाने कब आपस में जूते चल जायें भरोसा नहीं। इसलिए भईया पैरों में बांधे ही रहो...

आज कटोरी , चम्मच, कांटा भोजन में जरूरी है.....एक समय था...भोजन में आनाकानी करने वाले बच्चे को चांटा जरूरी था...और अब कांटा।

      भोजन वाली चम्मच न होती तो चमचागिरी भी शायद न होती। और सब्जी वाली कटोरी न होती तो लोगों को समान थाली मिलती....किसी के हाथ में कटोरा नहीं होता।

   आपने भोजन में बर्तनों की वृद्धि जबसे की...बर्तनों के टकराने के स्वर...पड़ोस से मोहल्ले तक पहुंचने लगा। 

★सनद रहे पत्तलों में भोजन करने वाले घरों में ऐसी टकराहट सुनाई नहीं देती।

      भोजन तो मात्र प्रतीक है...आप अच्छा लेख लिखो, ऐतिहासिक तथ्यों को सामने लाओ, आप छल कपट मत करो...आपको समर्थन, सम्मान, उचित स्थान कभी नहीं मिलेगा। बल्कि विरोध और प्रतिकार शुरू हो जायेगा। 

 बचपन से हम पढ़ते आये हैं , सुनते आये हैं छोटी रेखा के नीचे बड़ी रेखा खींच दो.....अब तो छोटी रेखा खींचने वाला रबर साथ मे रखता है...मिटा देना चाहता है बड़ी रेखा के अस्तित्व को..। 

                         पूरे घर को बात बात में कर्कश स्वर में बुरी तरह फटकार लगाने वाले परिवार के बड़े और जिम्मेदार ने ही तूफान के थपेड़ों को झेला...कभी किसी से बताया भी नहीं।

जिन कठोर ध्वनियों को सुन कर पूरा घर सहम जाता था...उनका जीवन परिवार के एक एक सदस्य  को व्यवस्थित करने के लिए ही था...घर में एक बड़े की ध्वनि के भय से न बर्तन टकराये बर्तनों की ध्वनि सुनाई....

               हाँ युग बदला.....हम बदले....हम बुजुर्गों की कर्कश ध्वनि से दूर होते चले गये...ध्वनि से हम खुद की प्रतिध्वनि सुनने लगे...हम चम्मच वाली संस्कृति के अनुयायी होते चले जा रहे हैं...

पहले हम कांसे की थाली में खाते थे और आज हम  झांसे की थाली में.....। 

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