चुपचाप रसोई , खामोश चूल्हा

चुपचाप रसोई, ख़ामोश चूल्हा :

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जब रसोई के चूल्हे खामोश हो जाएं......! जब रसोई शांत हो जाती है तो टूटने लगती है गृहस्थी....

क्या आपने कभी सोचा है कि एक चुपचाप रसोई पूरे देश का भविष्य बदल सकती है ? ? आज विकसित देशों में यही हो रहा। 

सन् 1970 के दशक तक ज़्यादातर घरों में दादा-दादी, माँ-बाप और बच्चे सब साथ रहते थे। शाम को सब एक ही रसोई में या डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाते। घर की रोटी, दाल, चावल, सब्ज़ी,चटनी, अचार  सिर्फ़ पेट नहीं भरते बल्कि रिश्तों को भी मज़बूत करते थे। सब एक साथ में बैठते तो बातचीत के दौर चलते। खाने में मिठास मीठी बातों से घुल जाती। 

लेकिन 1980 के बाद तस्वीर बदलने लगी।

फास्ट-फ़ूड, रेस्तरां और टेकअवे ने घरों की रसोई पर कब्ज़ा कर लिया।

घर के बड़े बुजुर्गों की आवाज़ें दबने लगीं। उनके होने की महत्ता खत्म सी कर दी गई। अधिक धन की चाहत में माँ-बाप नौकरी में व्यस्त हो गए, उनके संमय की कमी ने बच्चों को पिज़्ज़ा,बर्गर, चाऊमीन में उलझा दिया। 

कुछ विशेषज्ञों ने उसी समय चेताया था....

“अगर घर की रसोई कंपनियों को सौंप दी और बच्चों-बुज़ुर्गों की ज़िम्मेदारी सरकार पर डाल दी, तो परिवार बिखर जाएंगे।”

लोगों ने बात नहीं मानी और वही हुआ।

1971 से पहले लगभग 70% घर पारंपरिक परिवार थे। बड़े बुजुर्ग, माँ-बाप और बच्चे सभी साथ रहते थे।

आज यह संख्या घटकर सिर्फ़ 20% रह गई है।

अब बाकी क्या बचा ..?

बुज़ुर्ग – वृद्धाश्रमों में।

युवा – अकेले किराए के फ्लैट में।

शादियाँ – टूटती हुई।

बच्चे – अकेलेपन के शिकार। मोबाइल में घुस कर व्यस्तता तलाशता हुआ।

तलाक की दर देखिए ...60 से 65 % तक बढ़ गई है।

यह कोई संयोग नहीं, बल्कि चुप रसोई की क़ीमत है।

क्योंकि घर का बना खाना सिर्फ़ खाना नहीं होता।

उसमें माँ के हाथ का स्पर्श और ममता, दादा की मज़ेदार बातें, दादी की भूली बिसरी कहानियाँ, और संग साथ का वह जादू होता है जो घर को परिवार बनाता है।

लेकिन आज खाना स्विगी-ज़ोमैटो से आता है और घर धीरे-धीरे सिर्फ़ मकान तो रह जाता है, परिवार नहीं।

इसका दूसरा डरावना रूप है बिगड़ती सेहत।

फास्ट-फ़ूड की लत ने मोटापा, डायबिटीज़ और दिल की बीमारियों में धकेल दिया।

स्वास्थ्य उद्योग अब बीमार पीढ़ियों से ही मुनाफ़ा कमा रहा है।

लेकिन अभी देर नहीं हुई है।

अपनी रसोई यों को फिर से जलाना होगा। उसे व्यस्त बनाना होगा। क्योंकि उसकी व्यस्तता सेहत और संस्कृति दोनों की रक्षक है।

जापानियों ने यह साबित किया है – वे अब भी साथ मिलकर पकाते और खाते हैं, इसलिए लंबी उम्र पाते हैं।

भूमध्यसागर के देशों में खाना पवित्र माना जाता है, इसलिए उनके रिश्ते मज़बूत रहते हैं।

विकसित देशों की ऐसी कहानियां सचमुच डराती हैं। अब भारत में भी यही खतरा सामने दिख रहा है – बाहर का खाना, व्यस्त जीवन, और घरों की धीरे-धीरे बुझती रसोई।

तो कल आपकी रसोई चुप न हो जाए, इसके लिए आज ही चूल्हा जलाइए।

खाना पकाइए, परिवार को टेबल पर बुलाइए।

क्योंकि शयनकक्ष घर देता है, पर रसोई परिवार बनाती है।

निर्णय आपका है –

आप घर बनाना चाहते हैं या सराय.......!!

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