थोड़ा जीना- थोड़ा मरना
थोड़ा जीना - थोड़ा मरना :
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इंसानों को पुकारते समय मैंने जाना
इंसानों को पीठ के बल नहीं
सामने से पुकारना चाहिए...
क्योंकि पीठ किये जाता हुआ
अक्सर लौट कर नहीं आता
और वह एक क्षण मृत्यु का पैगाम है
क्या यह सच है कि इक दिन इंसान
मिट्टी बनकर मिट्टी में मिल जाता है
आग के बारे में सोचना जरूरी है
आग को जानोगे तभी राख को समझोगे
हमारा अंत दुनिया का अंत होगा
जीवन कैसा होना चाहिए....
ये रहस्य अनसुलझा होकर शाश्वत है
दुनिया के ब्लैक बोर्ड पर से
अपना नाम मिटाना इतना भी आसान नहीं है
क्योंकि दृश्य और अदृश्य दोनों में हम मौजूद रहेंगे...
क्या इंसान मिट्टी होकर ब्रह्मांड में बिखर जाता है
क्या हम भी ऐसे ही कहीं गुम हो जाएंगे
और बस एक कहानी में तब्दील होकर रह जाएंगे
खो गए बिखर गए इसलिए क्योंकि स्वयं में
बहुत कुछ समेट सकते थे बस स्वयं को समेट नहीं पाए
सोचते रहे निरन्तर कि दुनिया क्यों है ? ?
हम क्यों हैं...और अगर हैं तो क्या
एक दिन हम सब खत्म हो जाएंगे
क्या सिर्फ इसलिए हम शुरू हुए थे कभी
कुछ ऐसा सोचते कहते हम सब
दुनिया की रवायतों को निभाये जा रहे हैं
जिये तो जा रहे पर फ़िर भी
हर पल हर क्षण थोड़ा थोड़ा मरे भी जा रहे हैं
~ जया सिंह ~
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