कड़वा सच: अब न्याय से भी उम्मीद नहीं

 कड़वा सच...अब न्याय से भी उम्मीद नहीं : 

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जब जब कोई अपराध होता है। तब तब हर पीड़ित न्यायालय की ओर देखता है कि उसे उसकी पीड़ा के लिए न्याय मिलेगा। पर आजकल जो चलन चल निकला है उसमें न्याय की कुर्सी पर बैठे न्यायाधीश ना जाने किस सोच और मानसिकता के तहत न्याय दे रहे ये सोचनीय मुद्दा है। ऊपर प्रस्तुत चित्र में लिखी पंक्तियां पूरी न्याय व्यवस्था पर प्रश्न उठाती हैं।

क्या पूरी तरह बलात्कार हो जाने पर ही बलात्कार माना जायेगा। उसके लिए प्रयास किये जाने को क्या कहेंगे। 
दो लड़कों ने एक ग्यारह वर्षीय बालिका को एक सूखी नदी की पुलिया के नीचे खींचकर जबर्दस्ती करने की कोशिश की।  उसके कपड़े फाड़ दिए। उसके स्तनों को पकड़ा और मसला, सलवार की डोरी तोड़ दी । तभी कुछ गुजरते राहगीरों ने बच्ची का चीखना सुनकर उसे बचाया। लड़के भाग खड़े हुए। जब परिवार के साथ उन लोगों ने भी गवाही देकर अपराधी लड़को के लिए सजा की मांग की तो कोर्ट ने ये कहा....!!
जरा जज साहब से कहा जाए कि अपनी बेटी को बहुत से लड़को के बीच छोड़ देवें और उन्हें उसके साथ बलात्कार से पहले होने वाली छीना झपटी और नोचा खरोसी करने दें। जब तक पूरी तरह बलात्कार ना होये ये चलने दे। तो क्या उन्हें ये गवारा होगा ? ? इंसान हैं अगर तो उन्हें उस बच्ची का भय नहीं दिखा ....या तो इंसान ही नहीं है जो उस डर दहशत और पीड़ा को महसूस नहीं कर पास रहे। 

कानून की कौन सी किताब में लिखा है कि किसी के कपड़े फाड़ना, उसके अंतरंग अंगों को छूना , उसे नंगा करने का प्रयास करना अपराध नहीं है। अपराधी तब अपराधी माना जायेगा जब वह उसका पूरी तरह बलात्कार करने में सफल होगा ...?? 
शर्म गया ऐसे लोगों पर जो उच्च पदों पर बैठकर भी सही गलत का फ़र्क़ नहीं समझ पाते। जो दर्द नहीं समझ पाते। जो भावनाविहीन होकर बस कार्य होने की खानापूर्ति कर रहे। 
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