विकसित बुद्धि - लाभ या हानि
विकसित बुद्धि - लाभ या हानि
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क्या सोचने समझने या दूसरे शब्दो में बुद्धि के विकास से मनुष्य जीवन अन्य जीवों की तुलना में उलझाव भरा हो गया है ? शायद हां, सोचने-समझने की क्षमता और बुद्धि के विकास ने मनुष्य के जीवन को अन्य जीवों की तुलना में अधिक जटिल और उलझाव भरा बना दिया है।
अगर हम पशु-पक्षियों को देखें, तो उनका जीवन सरल नियमों पर चलता है— भोजन खोजना, प्रजनन करना, सुरक्षा सुनिश्चित करना और बस जीवित रहना। वे पल में जीते हैं, बिना किसी अस्तित्वगत संकट, Existential crisis के। उनके पास न तो अतीत की यादों का बोझ है, न ही भविष्य की चिंता। वे प्रकृति के प्रवाह में सहज रूप से जीते हैं।
मनुष्य, अपनी विकसित बुद्धि के कारण, केवल भौतिक अस्तित्व तक सीमित नहीं रहा। उसने यह जान लिया कि वह नश्वर है, कि उसका अंत निश्चित है। उसने स्वयं को ब्रह्मांड में अकेला खड़ा पाया, जहां उसे न केवल जीवित रहना था, बल्कि जीवन के अर्थ को भी तलाशना था। यही जागरूकता उलझाव का स्रोत बन गई।
हम सोचते हैं कि हम कौन हैं, क्यों हैं, और हमारा उद्देश्य क्या है ? हम न केवल अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में लगे रहते हैं, बल्कि अपनी पहचान, इच्छाओं, सपनों और सामाजिक संबंधों को भी संवारने में संघर्ष करते हैं। हमने समाज, धर्म, नैतिकता, कानून, अर्थव्यवस्था जैसी जटिल संरचनाए बनाई हैं, जो जीवन को एक दिशा देती हैं, लेकिन साथ ही उसे उलझाती भी हैं।
बुद्धि ने हमें कल्पना करने, संभावनाए देखने और विकल्प चुनने की शक्ति दी, लेकिन इसी के साथ असुरक्षा, भय और संदेह भी आया। पशु अपने वर्तमान में जीते हैं, जबकि मनुष्य अपने अतीत में उलझा रहता है और भविष्य की चिंता में घिरा रहता है। उसकी भावनाए और विचार उसे बार-बार प्रश्नों, असंतोष और बेचैनी की ओर धकेलते हैं।
लेकिन यही उलझाव, यही जटिलता मनुष्य को विशेष भी बनाती है। इसी के कारण हमने कला, विज्ञान, दर्शन और संस्कृति को जन्म दिया। हमने प्रेम, करुणा, नैतिकता और आत्मबोध को विकसित किया। यह उलझाव ही हमें केवल जीने से आगे बढ़ाकर जीवन के रहस्यों को समझने और उनसे खेल करने की प्रेरणा देता है।
तो, हा बुद्धि के विकास ने जीवन को जटिल बना दिया है, लेकिन शायद यह उलझन ही हमारी असली पहचान है। अगर जीवन पूरी तरह से सीधा-सपाट होता, तो क्या वह इतना सुंदर, रोमांचक और अर्थपूर्ण होता.....? ?
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