मन को विश्राम देना आवश्यक
मन को विश्राम देना आवश्यक :
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कर्म और विश्राम दोनों ही स्थितियाँ मानव जीवन को चलायमान बनाने में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाती हैं। कोई भी निरंतर कर्म नहीं कर सकता। और कोई भी अधिकाधिक विश्राम से ऊब जाता है। लेकिन कर्म का परिणाम हमें भौतिक रूप में मिलता है जबकि विश्राम का परिणाम हमें आंतरिक रूप में मिलता है। जब कोई कुछ ना भी कर रहा होता है तब भी वो एक कर्म कर रहा है अर्थात कुछ नहीं करने का कर्म। परंतु जब कर्म किसी विशेष उद्देश्य को लेकर किया जाता है। तब वह कर्म फलीभूत माना जा सकता है। प्रकृति ने एक समय घड़ी बनाई है जिसे कर्म के साथ जोड़ने से परिणाम सकारात्मक होने का प्रतिशत अधिक होता है। मतलब कर्म वह जिसमें उद्देश्य के साथ प्रकृति की घड़ी का भी समायोजन किया जाए। प्रकृति की घड़ी से तातपर्य है कि कार्य के लिए उचित समय...जैसे सूर्योदय के साथ उठना, समयानुसार खाना पीना, रात्रि को समय से भोजन और फिर देर तक नहीं जागना, ऋतुअनुसार खानपान का दस्तूर निर्धारित करना वग़ैरह वग़ैरह।
अब श्रम के साथ विश्राम को भी उतना ही महत्वपूर्ण माना गया है। जो मन, आत्मा और मस्तिष्क सभी को आरामदायक अवस्था का आभास कराता है। निरंतर कोई मशीन भी चले तो वह गर्म हो जाती है। तो उसे पुनः ठंडक की अवस्था में लाने के लिए विश्राम दिलाना पड़ता है। तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में एक चौपाई लिखी है......हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई, गए जहां सीतल अवँराई। इन पंक्तियों में ये कहा गया कि प्रभु श्रीराम ने अपनी सेना व्यवस्थित करने के लिए हाथी घोड़े को टुकड़ी में बांटने के श्रम के बाद विश्राम की आवश्यकता महसूस की और एक शीलत अमराई यानी पेड़ के नीचे विश्राम करने लगे। विश्राम का अर्थ होगा श्रम हटा अर्थात जहां कोई श्रम नहीं वहां विश्राम होगा।
विश्राम की आवश्यकता तब पड़ती है जब अत्यधिक श्रम से मन अवसाद में आ जाता है। जिस तरह मशीन गर्म होती है उसी तरह मन भी निरंतर श्रम से व्यथित हो जाता है तब उसे विश्राम की आवश्यकता पड़ती है। जब भी कोई कर्म हो रहा होता है उस समय शरीर के साथ मन भी उसी अनुसार चल रहा होता है। मन सोचता रहता है तो वो भी चलायमान स्थिति में रहता है। इसलिए मन को भी उतना ही विश्राम की जरूरत होती है।
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