शिवलिंग और जल अर्पण
शिवलिंग और जल अर्पण :
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हम सभी देवाधिदेव शिव को पूजते हैं। और इस पूजन का सबसे महत्वपूर्ण भाग है उन पर जल चढ़ाना, उन्हें शीतल जल से स्नान कराना.... उसके उपरांत ही उन्हें तिलक और प्रसाद अर्पित करते हैं। जबकि अन्य देवी देवताओं को इस तरह हर बार जल-स्नान नहीं कराया जाता। इस विधान के पीछे की कथा का सार देव असुर समुद्र मंथन से जुड़ी है।
जब देव और असुर मिलकर वासुकी नाग को मथानी की रस्सी बनाकर मंदार पर्वत की सहायता से समुद्र मंथन कर रहे थे। जिसका उद्देश्य था चौदह रत्नों की प्राप्ति....ये चौदह रत्न थे
कालकूट ( यानी हलाहल , विष ), ऐरावत हाथी, कामधेनु गाय, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रंभा, अप्सरा, महालक्ष्मी, वारुणी, चंद्रमा, उच्चश्रवा घोड़ा, शारंग धनुष, पांचजन्य शंख, धन्वंतरि, अमृत।
परंतु इन रत्नों की प्राप्ति के लिए एक नियम था कि जो भी रत्न पहले निकलेगा उसे स्वीकारा जाएगा। तब ही दूसरा रत्न निकलेगा।
तो इस मंथन की प्रक्रिया में सबसे पहले हलाहल निकला। जिसके बाहर आते ही उसकी तीव्र प्रतिक्रिया से सभी देव दानव की त्वचा जलने लगी। उसकी ज्वाला बहुत तेज थी। और सभी उस ताप से झुलसने लगे। लेकिन अन्य रत्न निकालने के लिए पहले उसे स्वीकारना जरूरी था। और देव दानव में से कोई भी उसे स्वीकारने को तैयार नहीं था।
तब देवाधिदेव भगवान शिव आगे आये और उन्होंने उस हलाहल को पीकर अपने कंठ में रोक दिया। जिससे वह पेट में जाकर रक्त में ना मिले। इसीलिए शिव को नीलकंठ भी कहते हैं।
अब गले में वह विष का संग्रहण करने से उनके शरीर का ताप बढ़ने लगा। वह नीले पड़ने लगे। और बेसुध होने लगे। उस विष की ज्वाला अत्यंत भयंकर थी। जो शिवजी को भी व्यथित करने लगी। जब सभी देवताओं ने शिव की हालत देखी तो उनके ताप को ठंडा करने के लिए सभी बारी बारी उन पर शीतल जल अर्पित करने लगे। जिससे शिवजी को राहत मिलने लगी।
सभी ये जानते होंगे कि जब जब हमें बुखार चढ़ता है डॉक्टर सबसे पहले माथे पर ठंडी पट्टी रखने को कहता है। बस यही कुछ देवताओं ने किया। उन पर जल अर्पित कर कर के उस जलन भरे ताप से शिव जी की पीड़ा कम करने का प्रयास करने लगे।
इसीलिए हम जब भी शिवमन्दिर जाते हैं। शिवलिंग पर सबसे पहले शीतल जल अर्पित करते हैं जो ये प्रमाणित करता है कि हम भी उनके ताप को ठंडक में बदलने की प्रार्थना कर रहे। ईश्वर हम पर दया बनाये रखना।
ॐ नमः शिवाय 🙏
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