प्रतीक्षालय के लिए 500 K.M की यात्रा जरूरी ?......   

चलिए आज एक ऐसे विषय पर चर्चा करते हैं जो हमारी आम जिंदगी से बहुत गहरे तरीके से जुड़ा है। आज के ही समाचार पत्र में पढ़ा कि रेलवे ने एक नया नियम लागू किया है कि यदि आप की यात्रा 500 किलोमीटर से कम है तो आप को रेलवे के retiring room  की सुविधा नहीं मिलेगी। अर्थात 500 किलोमीटर से कम की यात्रा में  आप को बाहर platform पर ही बाकि का समय काटना पड़ेगा। अब इस नियम के पीछे की दुश्वारियाँ समझें। 
प्रतीक्षालय  का मतलब होता है  वह जगह  जहां  यात्री  ट्रेन  की प्रतीक्षा करता है चाहे  वह  500 किलोमीटर की यात्रा कर रहा हो या उससे कम  की। सफर मे यात्रा करने वाले परिवार को प्रतीक्षालय की  आवश्यकता ज्यादा होती है बजाय अकेले यात्री को।  और वैसे भी  प्रतीक्षालय  पर उस प्रत्येक यात्री का हक़ है जो रेलवे की टिकट लेकर यात्रा कर रहा है।  जरुरत इस बात की है की है कि प्रतीक्षालय  के गलत  प्रयोग  को रोका जाये न की सही टिकट के साथ यात्रा कर रहे यात्री को।  सामन्यतयत : प्रतीक्षालय का गलत प्रयोग रेलवे के अधिकारी कर्मचारी और उनके परिचित ही ज्यादा करते हैं। इस नियम के बनने से ये  अधिकारी एवं कर्मचारी और अधिक स्वतंत्र होंगे ऐसा करने के लिए।   अतः जरुरत है प्रतीक्षालय के गलत प्रयोग को रोकना न की सही टिकट के साथ यात्रा कर रह यात्रियों को रोकना। 
                         फर में हम जब भी निकलते हैं छोटे बच्चे ,बड़े बूढ़े और महिलायें सभी साथ रहते हैं। और भले ही सफर 2 , 4 या 7 घंटे का हो ,थकान उतारने  के लिए व्यक्ति आराम जरूर करता हैं। यदि कोई ट्रेन सुबह अँधेरे में या देर रात पहुंचती हो ऐसे में व्यक्ति को रोशनी होने तक सवारी की प्रतीक्षा में प्लेटफार्म पर ही रहना पड़ता है। और यदि उस को कोई दूसरी ट्रेन पकड़नी है और दोनों ट्रेनों में अंतर कुछ घंटों का है। ऐसे में व्यक्ति परिवार को लेकर प्लेटफार्म पर पड़े  रहना पड़ेगा जो अनुचित होगा। सबसे पहले तो रेलवे को बड़े प्रतीक्षालयों की व्यवस्था करनी चाहिए जिसमे शौचालयों समेत विश्राम हेतु बेंच की भी सुविधाएँ हों। भले ही वह एक तरफ से खुले हों पर उस में आवाजाही की रोक हो जिस से जो भी चाहे वहाँ  आराम कर सकें। ऐसे में छोटे बच्चो के साथ माएं सुरक्षित हो पाएंगीं । ऐसी कोई व्यवस्था रेलवे के पास नहीं है। अपनी इस गलती के लिए यात्रिओं के ऊपर बोझ डालना उचित है क्या ? एक यात्री वैसे ही घर से बाहर अनेकों परेशानियां भुगत कर मजबूरी में ही सफर करता है। उसे एक चिंता में और डाल  देना सही नहीं है।
                  platform पर परिवार के साथ होने पर बच्चो के कारण सचेत रहना पड़ता है। कि कही बच्चा train track की ओर न चला जाए। भीड़ भाड़ में छोटे बच्चे का ध्यान रखना भी एक बड़ी समस्या है। प्लेटफार्म पर  ठेले खोमचे वाले भी घूमते रहते है। और किसी एक जगह परिवार को स्थिर  करना कैसे संभव होगा। ऐसे में छोटे बच्चो या बुजुर्गों को कैसे और कहाँ बिठाया जा सकता हैं। सबसे बड़ी बात ये की प्लेटफार्म पर रेलवे द्वारा इतनी benches भी नहीं बनाई जाती की सभी उस पर बैठ सके। ऐसे में परिवार इधर उधर जमीन पर ही बैठने को मजबूर रहता हैं। क्या आप को नहीं लगता की ये नियम सुरक्षा की लिहाज से गलत है।  पर उन्हें क्या जो इस तरह के नियम बनाना तो जानते है पर उसकी खामियों को नजरअंदाज कर देते हैं। घर से बाहर निकलना ही अपने आप में एक चुनौती से कम नहीं है क्योंकि व्यक्ति की जुटाई सारी सुविधाओं का ताना बाना बिखर सा जाता है। विपरीत परिस्थितियों में एक जगह से दूसरी जगह की  यात्रा करना उसकी मजबूरी बन जाता हैं। यात्रा जीवन का एक सत्य है और इस  सत्य से रूबरू  होने में जितना सुकून मिले यही अच्छा है। ये माना जा सकता है की रेलवे एक बड़ी संस्था हैं और उसे लगातार जनसम्पर्क में रहना होता है। और वह यात्रिओं की सुविधाओं के लिए बहुत कुछ करती भी रहती है। पर किसी भी नए नियम को लागू करने से पहले सुरक्षा के पहलु को सबसे ज्यादा महत्व देना चाहिए। कोई भी नियम बनाने से पहले यह मंथन करना जरुरी है कि नियम आम आदमी को कैसे राहत दे सकता है बजाये इसके की व्यवस्था कैसे सुधरे। क्योंकि  आम आदमी को  राहत देते हुए व्यवस्था को सुधारना ही सही मायने में क्रांति होगी। यात्री संख्या भार देखते हुए उनके लिए माकूल परिस्थितियां बनाना रेलवे की ही जिम्मेदारी है। ताकि सिर्फ कहने के लिए नहीं वाकई यात्रा मंगलमय हो।  

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