घुटन और दर्द की अनदेखी का नतीजा.............!
अभी हाल में ही जोधपुर के ही एक विद्यालय की एक छात्रा ने फांसी लगा कर खुद्कुशी कर ली। कारण था विद्यालय में अनुचित व्यव्हार। सबसे कमाल की ये बात है कि उसके शिकायत करने पर किसी ने भी ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। जिस का नतीजा उसकी ख़ुदकुशी के रूप में सामने आया। आज उसके माता पिता लाख पछता रहें हो पर उस समय जब उन्हें उसका दर्द समझने की जरूरत थी तब उन्होंने इस मुद्दे को हलके में ले कर अनदेखा कर दिया। अब पछताने के बाद भी बच्ची वापस नहीं मिलेगी। स्कूल में इस तरह अक्सर देखने को मिलता है कि यदि किसी बच्चे के द्वारा किसी की शिकायत की जाती है तो उसे नजरअंदाज करके स्थिति को जस का तस बना रहने के लिए बाध्य किया जाता है। आखिर बच्चा भी कब तक उस स्थिति को यूँ ही झेलता रहेगा इस लिए उसे जो रास्ता समझ में आता है वह उसे अपना लेता है। उसके स्कूल न जाने या बदलने की बात पर अभिभावक ने उसे सहयोग नहीं दिया और ये कह कर टाल दिया कि इस तरह की घटनाओं को अनदेखा कर आगे बढ़ जाना चाहिए। जबकि बच्ची उस परेशानी के जाल में बुरी तरह उलझ चुकी थी।
स्कूल में अध्यापक उसे परेशान कर रहे थे और साथ ही , कक्षा के बच्चे भी उसका मजाक बनाये जा रहे थे। जब इसके बारे में उसने घर आकर कहा और विद्यालय बदलने की बात की तो अभिभावक अपनी जिद पर अड़ कर उसे समझाइश से काम लेने की सलाह देने लगे। सब तरफ से दुखी हो कर उसने जीवन समाप्त कर लेना अच्छा समझा। अब अभिभावक ने पुलिस में स्कूल के खिलाफ शिकायत दर्ज करा दी है। जबकि मेरी नजर में स्कूल से पहले अभिभावक दोषी है। संतान का सबसे पहला नाता माता पिता से होता है और ये भी है की संतान को सबसे ज्यादा कोई समझ सकता है तो वह है माता पिता। अगर हम ही उनकी तकलीफों को अनदेखा कर देंगे तो वह अपनी फरियाद ले कर कहाँ जाएंगे। जब अपनी संतान सामान्य व्यव्हार न कर रही हो और कुछ परेशान सी दिख रही हो तो हमें तुरंत पता लगाना चाहिए की माजरा क्या है। क्योंकि कभी कभी बच्चा अपनी तकलीफ खुद से नहीं कह पाता। इसी उधेड़बुन में बड़े हादसे भी हो जाया करते हैं और हमें पता नहीं चलता। बच्चे को असंयत देखते ही उसकी परेशानी या समस्या का कारण जानना आवश्यक है जिस से समय रहते कारण का निदान किया जा सके।
स्कूल इस घटना में दोषी इस लिए है कि हम अपने बच्चो को भेज कर सुकून महसूस करें ये उसकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि बच्चा खुद को वहाँ पर असुरक्षित और uncomfortable महसूस कर रहा हो तो ये स्कूल के लिए शर्मिंदगी की बात है। और विद्यालय के अध्यापकों की नियुक्ति के ही समय उनके व्यव्हार की भली भांति जांच होनी चाहिए। कि वह बच्चो से किस तरह ताल मेल बैठा कर पढाने का कार्य करते हैं। आज कल कम पारिश्रमिक देने पर कम पढ़े लिखे या नौसिखिए युवक युवती को रख लिया जाता है जिस से स्कूल भी चलता रहे और खर्च भी कम आये। ये गलत है क्योंकि जो बच्चों की मानसिकता को समझ न पाये ऐसे unexperienced व्यक्ति की नियुक्ति गलत है. वह कभी भी एक अच्छा motivator नहीं बन सकता। अब चाहे जो भी कुछ हो जाये पर वह बच्ची कभी भी वापस नहीं आएगी अतः सोच विचार कर के भी अपनी गलती को ढंका नहीं जा सकता। बस आगे से ऐसा न हो ये ध्यान रखा जाना चाहिए।
अभी हाल में ही जोधपुर के ही एक विद्यालय की एक छात्रा ने फांसी लगा कर खुद्कुशी कर ली। कारण था विद्यालय में अनुचित व्यव्हार। सबसे कमाल की ये बात है कि उसके शिकायत करने पर किसी ने भी ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। जिस का नतीजा उसकी ख़ुदकुशी के रूप में सामने आया। आज उसके माता पिता लाख पछता रहें हो पर उस समय जब उन्हें उसका दर्द समझने की जरूरत थी तब उन्होंने इस मुद्दे को हलके में ले कर अनदेखा कर दिया। अब पछताने के बाद भी बच्ची वापस नहीं मिलेगी। स्कूल में इस तरह अक्सर देखने को मिलता है कि यदि किसी बच्चे के द्वारा किसी की शिकायत की जाती है तो उसे नजरअंदाज करके स्थिति को जस का तस बना रहने के लिए बाध्य किया जाता है। आखिर बच्चा भी कब तक उस स्थिति को यूँ ही झेलता रहेगा इस लिए उसे जो रास्ता समझ में आता है वह उसे अपना लेता है। उसके स्कूल न जाने या बदलने की बात पर अभिभावक ने उसे सहयोग नहीं दिया और ये कह कर टाल दिया कि इस तरह की घटनाओं को अनदेखा कर आगे बढ़ जाना चाहिए। जबकि बच्ची उस परेशानी के जाल में बुरी तरह उलझ चुकी थी।
स्कूल में अध्यापक उसे परेशान कर रहे थे और साथ ही , कक्षा के बच्चे भी उसका मजाक बनाये जा रहे थे। जब इसके बारे में उसने घर आकर कहा और विद्यालय बदलने की बात की तो अभिभावक अपनी जिद पर अड़ कर उसे समझाइश से काम लेने की सलाह देने लगे। सब तरफ से दुखी हो कर उसने जीवन समाप्त कर लेना अच्छा समझा। अब अभिभावक ने पुलिस में स्कूल के खिलाफ शिकायत दर्ज करा दी है। जबकि मेरी नजर में स्कूल से पहले अभिभावक दोषी है। संतान का सबसे पहला नाता माता पिता से होता है और ये भी है की संतान को सबसे ज्यादा कोई समझ सकता है तो वह है माता पिता। अगर हम ही उनकी तकलीफों को अनदेखा कर देंगे तो वह अपनी फरियाद ले कर कहाँ जाएंगे। जब अपनी संतान सामान्य व्यव्हार न कर रही हो और कुछ परेशान सी दिख रही हो तो हमें तुरंत पता लगाना चाहिए की माजरा क्या है। क्योंकि कभी कभी बच्चा अपनी तकलीफ खुद से नहीं कह पाता। इसी उधेड़बुन में बड़े हादसे भी हो जाया करते हैं और हमें पता नहीं चलता। बच्चे को असंयत देखते ही उसकी परेशानी या समस्या का कारण जानना आवश्यक है जिस से समय रहते कारण का निदान किया जा सके।
स्कूल इस घटना में दोषी इस लिए है कि हम अपने बच्चो को भेज कर सुकून महसूस करें ये उसकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि बच्चा खुद को वहाँ पर असुरक्षित और uncomfortable महसूस कर रहा हो तो ये स्कूल के लिए शर्मिंदगी की बात है। और विद्यालय के अध्यापकों की नियुक्ति के ही समय उनके व्यव्हार की भली भांति जांच होनी चाहिए। कि वह बच्चो से किस तरह ताल मेल बैठा कर पढाने का कार्य करते हैं। आज कल कम पारिश्रमिक देने पर कम पढ़े लिखे या नौसिखिए युवक युवती को रख लिया जाता है जिस से स्कूल भी चलता रहे और खर्च भी कम आये। ये गलत है क्योंकि जो बच्चों की मानसिकता को समझ न पाये ऐसे unexperienced व्यक्ति की नियुक्ति गलत है. वह कभी भी एक अच्छा motivator नहीं बन सकता। अब चाहे जो भी कुछ हो जाये पर वह बच्ची कभी भी वापस नहीं आएगी अतः सोच विचार कर के भी अपनी गलती को ढंका नहीं जा सकता। बस आगे से ऐसा न हो ये ध्यान रखा जाना चाहिए।
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