अपराध की प्रकृतिनुसार दंड का प्रावधान…………!

वैसे  तो यह मानने  में  कोई दरकार नहीं कि  भारतीय कानून व्यवस्था  भारत देश का एक मजबूत स्तम्भ है जो देश की तरक्की में अहम रोल अदा  कर रहा है परन्तु क्या कभी आप ने कानून व्यवस्था की खामियों को अपराध  बढ़ने के लिए जिम्मेदार के रूप मे स्वीकार किया है ? यदि नहीं तो विचारें और फिर उन नतीजों पर अमल करें जो इसे सुधार सकते हैं। वर्तमान कानून व्यवस्था में गुनाह चाहे जैसा भी हो , जिस भी क्षेत्र का हो, कितना भी जघन्य हो सामान्यतः सजा जेल के रूप में ही होती है अर्थात कुछ समय तक उन्हें समाज से काट कर अलग- थलग रख लेना उन्हें सुधार की और बढ़ाना है पर क्या ऐसा वाकई में हो पाता है ?  अपराधों के वर्गीकरण अनुसार यदि सजा जेल होने  के बजाये कुछ और हो तो परिणाम भी बदल सकता है। उदाहारण के लिए कुछ प्रमुख चर्चित अपराधों का विश्लेषण कर देखतेँ है की इन में वाकई सजा किस प्रकार की होनी चाहिए थी  जो कि व्यक्ति और देश दोनों को प्रभावित करती.....................   
1. वित्तीय अपराध जैसे सुब्रतो राय का अपराध, कई अन्य वित्तीय घोटाले जिनमे कई मंत्री लिप्त रहे जैसे 2 ज़ी  घोटाला जिसमे राजा का नाम आया. इसी तरह कॉमनवेल्थ घोटाला जिसमे कलमाड़ी का नाम आया। ऎसे अपराधो मे सजा जेल हुईं और परिणाम आप के सामने है।  क्या जेल होने से ये सभी अपराधी सुधर गए ? क्या जेल होने से वित्तीय अपराधों में बर्बाद  हुऐ देश के बहु मूल्य सरकारी रूपए देश को वापस मिल पाएंगे ? क्या इन अपराधी मे से किसी ने गलत तरीको से कमाया पैसा देश को वापस किया ? यदि इनमे से कुछ भी नहीं हुआ तो फिर कानून , अदालत, जेल का क्या  अर्थ है क्या देश की अदालत जेल की बजाय कुछ ऐसा फैसला नही  सुना सकती जिससे देश का बहु मूल्य पैसा देश को वापस मिल जाये और अपराधी आगे से अपराध करने से डरे।
२.  अपराध की दूसरी श्रेणी है छोटी बच्चियों एवम महिलाओं से बलात्कार जिसकी सजा भी भारतीय कानून मे जेल ही है क्या ऎसे अपराधी जेल से छूटने पर ऎसे अपराध बंद  कर देंगे ? ऐसा देखने और पढ़ने मे आया है कि मनुष्य ऐसे  अपराध दो ही परिस्थियों मे करता है  इसका पहला कारण तो यह  है कि शरीर में  सेक्स हॉर्मोन परिवर्तन होने से मनुष्य का दिमाग गलत काम करने के लिए मजबूर हो जाता है। दूसरा कारण यह है की जब मनुस्य के पास अथाह शक्ति और पैसा होता है तो वो सोचता है की मैं कुछ भी करूँगा तो वो सही है जैसा की आसाराम बापू  के केस में  हुआ। अब अगर इन दोनो केस मे अदालत सजा जेल के रूप मे देगी तो क्या ऎसे अपराध रुक पायेंगे ? क्या फिर जेल से निकलने के बाद ये शारीरिक मांग दुबारा उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं करेगी ?  जुर्म की प्रकृति एक होते हुए भी दोनों के किये जाने की वजह अलग है और इसी तरह इस अपराध के लिए भी सजा जेल के बजाये कुछ अलग ही होनी चाहिए। 
3 .  अपराध की तीसरी  श्रेणी है हत्या , लूटपाट और धोखाधड़ी। अभी तक हत्या के कुछ ही केस में अपराधी को फांसी हुई है जबकि सबूतों के अभाव में अनेकों अपराधी छूट गए है। कई केस में जेल से छूटे इन अपराधियों  ने  फिर से यही अपराध किया है. क्योंकि जेल से बाहर कोर्ट कचहरी की लचर व्यवस्था इन्हे खुला रहने की खुली छूट जो दे देती है।  
4 .  अपराध की चौथी  श्रेणी है सरकारी और गैर सरकारी कार्यालयों मे होने वाली अनियमितताएं , जिसका शिकार कई सरकारी और आम नागरिक होते हैं। जो देश मे भष्टाचार  फैलाने का मुख्य जरिया है। और ऎसे केस जब अदालतों मे जाते है तो सिर्फ कागजी कारवाही के जरिये लटकने से सिवा कुछ हाँसिल नहीं होता। सामान्यतः ऎसे केस उस पद के खिलाफ होते है जबकि उसे व्यक्ति विशेष के खिलाफ चाहिए। ऎसे में पदेन अधिकारी अपने प्रतिनिधि द्वारा अभिवेदन से केस में छुटकारा पा जाता है।और यदि निर्णय हुआ भी तो ये कि अभियुक्त को कुछ समय की जेल बस यही। समस्या का हल निकले या नहीं बस जेल के जरिये सजा दे देना आवश्यक समझा जाता है।
           ये तो कुछ उदाहरण है जिनके जरिये ये समझा जा सकता है की हर अपराध की सजा जेल होना क्या सही है ? हर व्यक्ति को 2 ,4 ,10 साल की सजा दे कर उसके द्वारा की गयी नुकसान की भरापूर्ति नहीं की जा सकती और इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है की वह विशेषकर सम्बंधित मामले में सुधर गया है। कहने का तात्पर्य ये है कि  क्या अपराधों की प्रकृति के अनुसार उनकी सजा का भी निर्धारण किया जा सकता है।  जैसे वित्तीय घोटालों के अंतर्गत पूर्ण संपत्ति को  जब्त कर उन्हें सड़क पर  जीने को  मजबूर कर देना ,  बलात्कार सम्बन्धी मामलों में सवेंदनहीन करने वाली दवाओं के जरिये उनकी घृणित भावनाओं पर रोक लगा देना ताकि आजीवन वह इस कार्य को अंजाम देने का दंश भोगता रहे , हत्या लूटपाट सम्बन्धी मामलों में पीड़ित की और उसके परिवार की मदद के लिए बाध्य करना या उस परिवार को उसका उत्तराधिकारी बना देना ,या सरकारी मामलों में जल्द से जल्द कार्य पूरा करने का निर्देश देना या उसकी क्षतिपूर्ति की भरपाई जैसे उपाय कारगर हो सकते हैं। मुझे ऐसा महसूस होता है की जेल में व्यक्ति को आत्मग्लानि के लिए उचित माहौल नहीं मिलता क्योंकि वहाँ भी अनेकों तरह के अपराधी मौजूद होते है और हर कोई अपने किये पर शर्मिंदा भी नहीं होता। अपने अपराध को जायज ठहराने की अनेकों दलीलों के आगे हर अपराधी खुद को justify करने लगता हैं। जरूरत है व्यवस्था में सुधार  की  तभी कुछ सार्थक परिणाम सामने आएंगे और एक मजबूत समाज और देश का गठन होगा।    

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