न्यायसंगत फैसले की दरकार……!
जिस कोर्ट और कानून से लोग न्याय पाने की उम्मीद लिए उसके दरवाजे पर जाते है अगर वही अन्याय कर दे तो इंसान भगवान के पास जाने की सोचेगा और ये रास्ता उसे मृत्यु की तरफ ले जाता है। लेकिन ये भी कानून की नजर में एक अपराध है। इस लिए इंसान दोनो ही तरफ से बंदिशों में जकड़ा हुआ है। अम्बाला के करनाल जिले के मथाना गावँ की एक घटना ने ये साबित कर दिया कि कुछ जगह कानून परिस्थितियों के आधार पर निर्णय नहीं देता बल्कि जो उसके लिए धाराएं बना दी गयी है उन्हें ही सही मान कर आगे बढ़ता रहता है। एक दुष्कर्म पीड़ित बालिका ने जब कोर्ट में गर्भपात याचिका लगाई तो कोर्ट ने medical termination of pregnancy act के तहत उसकी अर्जी ख़ारिज कर दी। अब गुजरते समय के साथ उस बालिका के लिए समय और मुश्किल होता जा रहा है। विवाह का झांसा दे कर युवक ने बालिका को फंसाया और गर्भधारण के बाद छोड़ दिया। अब सबसे हैरानी की बात इस घटना में ये देखने को मिली कि आरोपी की पहचान होने के बाद उसने ही गर्भपात न कराने के लिए अर्जी दाखिल की और उसकी अर्जी को कोर्ट द्वारा मान भी लिया गया। अब प्रश्न ये उठता है कि क्या कोर्ट को सही और गलत समझाने के लिए किसी और संस्थान की जरूरत है। जिस की अर्जी जायज है उसे स्वीकार नहीं किया और जो आरोपी है उसकी अर्जी को स्वीकार कर के पीड़िता को एक और नयी सजा सुना दी गयी।
माना की गर्भपात सम्बन्धी कानून बनाने के पीछे कुछ जायज वजह रही होंगी। और इसे लागू करना भी लाभकारी ही सिद्ध हुआ है। पर इसे दुष्कर्म के केस में लागू करना गलत है। क्योंकि इच्छा के विरुद्ध संतान का जन्म कभी भी सफल नहीं हुआ है। ऐसे ही बच्चे या तो कचरे के डिब्बों में ,लावारिस ट्रेनों में ,या पालनघरों में पड़े हुए मिलते हैं। जिन्हें माएं जन्म तो दे देती हैं पर पालने में असमर्थ होने के कारण इधर -उधर डाल देना बेहतर समझती हैं। ये कानून न्यायसंगत तब होगा जब इसकी उपयोगिता को सही कारण समेत सिद्ध किया जाएगा। एक और बात ये भी विचार योग्य है की आरोपी कि याचिका को क्यों मंजूरी दी गयी। जब की ये साबित हो चूका कि दुष्कर्म उसी ने किया तब उसे तवज्जो दिया जाना गलत नहीं है। और फिर इस तरह कोई कैसे अपनी की हुई गलतिओं को ढक सकता है। सबसे पहले तो आरोपी की बात सुनी ही नहीं जानी चाहिए। और उस बालिका के लिए ये गर्भपात इस लिए आवश्यक है क्योंकि अभी उसकी उम्र कम है। वह एक संतान के पालन पोषण का उत्तरदायित्व नहीं उठा सकती। क्या ये अर्जी की संतान का खर्च आरोपी उठाने को तैयार है एक बालिका से उसके अनचाहे गर्भ से छुटकारा पाने से रोक सकता है। पालन पोषण करना और खर्च उठाना ये दो अलग अलग कार्य हैं। जिस के लिए दो अलग अलग व्यक्तिओं की जरूरत पड़ती हैं। और जब माँ खुद ही बच्ची के सामान हो तो उससे एक बच्चा पालने की उम्मीद व्यर्थ है।
सबसे घृणित बात तो ये है कि दुष्कर्म का अर्थ ही जबरदस्ती है। तो ऐसे में आरोपी को ये हक़ किस ने दिया कि इस तरह का आचरण करने के बाद उसकी सुनवाई होगी। गलत व्यव्हार पर उसे सजा मिलनी चाहिए न कि उस बच्ची को। कानून ने न जाने किन किन धाराओं के तहत व्यक्तिओं के हाथ बांध रहें हैं। इसी कारण कई मामलों में तो आरोपी आसानी से बरी हो जाते हैं और पीड़ित तड़पता रह जाता है। साक्ष्य और गवाह दोनो ही ख़रीदे और बेचे जाते हैं। इस लिए सब कुछ बदल जाना आसान हो जाता है। जो दिखता है वैसा होता नहीं और जो असल में होता है वह कभी दिखता ही नहीं। इसी एक समस्या ने न जाने कितने फैसलों पर अपना प्रभाव डाल कर जिंदगियां बर्बाद की हैं। कानून के आँख पर पट्टी बंधी है इस लिए कि वह भेदभाव न कर सके पर इस का फायदा साक्ष्य और गवाह की दशा और दिशा बदलने के लिए किया जाता है जिस से पूरे मामलें का परिणाम ही बदल जाता है। यही सत्य है और इसी का खमियाजा इंसान भुगत है।
जिस कोर्ट और कानून से लोग न्याय पाने की उम्मीद लिए उसके दरवाजे पर जाते है अगर वही अन्याय कर दे तो इंसान भगवान के पास जाने की सोचेगा और ये रास्ता उसे मृत्यु की तरफ ले जाता है। लेकिन ये भी कानून की नजर में एक अपराध है। इस लिए इंसान दोनो ही तरफ से बंदिशों में जकड़ा हुआ है। अम्बाला के करनाल जिले के मथाना गावँ की एक घटना ने ये साबित कर दिया कि कुछ जगह कानून परिस्थितियों के आधार पर निर्णय नहीं देता बल्कि जो उसके लिए धाराएं बना दी गयी है उन्हें ही सही मान कर आगे बढ़ता रहता है। एक दुष्कर्म पीड़ित बालिका ने जब कोर्ट में गर्भपात याचिका लगाई तो कोर्ट ने medical termination of pregnancy act के तहत उसकी अर्जी ख़ारिज कर दी। अब गुजरते समय के साथ उस बालिका के लिए समय और मुश्किल होता जा रहा है। विवाह का झांसा दे कर युवक ने बालिका को फंसाया और गर्भधारण के बाद छोड़ दिया। अब सबसे हैरानी की बात इस घटना में ये देखने को मिली कि आरोपी की पहचान होने के बाद उसने ही गर्भपात न कराने के लिए अर्जी दाखिल की और उसकी अर्जी को कोर्ट द्वारा मान भी लिया गया। अब प्रश्न ये उठता है कि क्या कोर्ट को सही और गलत समझाने के लिए किसी और संस्थान की जरूरत है। जिस की अर्जी जायज है उसे स्वीकार नहीं किया और जो आरोपी है उसकी अर्जी को स्वीकार कर के पीड़िता को एक और नयी सजा सुना दी गयी।
माना की गर्भपात सम्बन्धी कानून बनाने के पीछे कुछ जायज वजह रही होंगी। और इसे लागू करना भी लाभकारी ही सिद्ध हुआ है। पर इसे दुष्कर्म के केस में लागू करना गलत है। क्योंकि इच्छा के विरुद्ध संतान का जन्म कभी भी सफल नहीं हुआ है। ऐसे ही बच्चे या तो कचरे के डिब्बों में ,लावारिस ट्रेनों में ,या पालनघरों में पड़े हुए मिलते हैं। जिन्हें माएं जन्म तो दे देती हैं पर पालने में असमर्थ होने के कारण इधर -उधर डाल देना बेहतर समझती हैं। ये कानून न्यायसंगत तब होगा जब इसकी उपयोगिता को सही कारण समेत सिद्ध किया जाएगा। एक और बात ये भी विचार योग्य है की आरोपी कि याचिका को क्यों मंजूरी दी गयी। जब की ये साबित हो चूका कि दुष्कर्म उसी ने किया तब उसे तवज्जो दिया जाना गलत नहीं है। और फिर इस तरह कोई कैसे अपनी की हुई गलतिओं को ढक सकता है। सबसे पहले तो आरोपी की बात सुनी ही नहीं जानी चाहिए। और उस बालिका के लिए ये गर्भपात इस लिए आवश्यक है क्योंकि अभी उसकी उम्र कम है। वह एक संतान के पालन पोषण का उत्तरदायित्व नहीं उठा सकती। क्या ये अर्जी की संतान का खर्च आरोपी उठाने को तैयार है एक बालिका से उसके अनचाहे गर्भ से छुटकारा पाने से रोक सकता है। पालन पोषण करना और खर्च उठाना ये दो अलग अलग कार्य हैं। जिस के लिए दो अलग अलग व्यक्तिओं की जरूरत पड़ती हैं। और जब माँ खुद ही बच्ची के सामान हो तो उससे एक बच्चा पालने की उम्मीद व्यर्थ है।
सबसे घृणित बात तो ये है कि दुष्कर्म का अर्थ ही जबरदस्ती है। तो ऐसे में आरोपी को ये हक़ किस ने दिया कि इस तरह का आचरण करने के बाद उसकी सुनवाई होगी। गलत व्यव्हार पर उसे सजा मिलनी चाहिए न कि उस बच्ची को। कानून ने न जाने किन किन धाराओं के तहत व्यक्तिओं के हाथ बांध रहें हैं। इसी कारण कई मामलों में तो आरोपी आसानी से बरी हो जाते हैं और पीड़ित तड़पता रह जाता है। साक्ष्य और गवाह दोनो ही ख़रीदे और बेचे जाते हैं। इस लिए सब कुछ बदल जाना आसान हो जाता है। जो दिखता है वैसा होता नहीं और जो असल में होता है वह कभी दिखता ही नहीं। इसी एक समस्या ने न जाने कितने फैसलों पर अपना प्रभाव डाल कर जिंदगियां बर्बाद की हैं। कानून के आँख पर पट्टी बंधी है इस लिए कि वह भेदभाव न कर सके पर इस का फायदा साक्ष्य और गवाह की दशा और दिशा बदलने के लिए किया जाता है जिस से पूरे मामलें का परिणाम ही बदल जाता है। यही सत्य है और इसी का खमियाजा इंसान भुगत है।
Comments
Post a Comment