बाजारवाद के फंडे

बाज़ारवाद के फन्डे :    ••••••••••••••••••••••••••

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि: " पूंजीवाद लोगों के लिए सिर्फ माल ही नहीं पैदा करता बल्कि अपने माल के लिए लोग भी पैदा करता है "

पूंजीवादी व्यवस्था में कंपनियां अपने प्रोडक्ट को सेल करने के लिए  Marketing research कराती हैं, जिसमें सबसे पहले market segmentation करती हैं ताकि consumers के needs, perceptions, expectations को समझा जा सके एवं positioning strategy बनाई जा सके management studies के दौरान इसे गहरे रूप में समझा जा सकता है। 

Demographic segments में जहां age, family, race, gender, income, occupation, education generation, nationality आदि variables पर focus किया जाता है वहीं Psychographic segments मे व्यक्तित्व एवं values पर फोकस होता है जैसे कि Thinker's, Innovators, believers, survivors की category बनाकर आदि.... प्रत्येक ग्रुप के लिए अलग अलग product एवं अलग अलग strategies.......क्योंकि उसके माल के आप बाजार हैं..... 

मार्केटिंग एजेंसियां अधिक खर्च करवाने के लिए न्यूरो साइंटिस्ट की नियुक्ति करती हैं जो नई tricks इजाद कर हमारे डर और  nostalgia  का उपयोग करती हैं.... ई-कॉमर्स कंपनियां और खुदरा विक्रेताओं द्वारा छुट्टियों, त्योहारों के दौरान बिक्री बढ़ाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं।

न्यूरो साइंटिस्ट पता लगातें हैं कि खरीदारी के वक्त निर्णय प्रक्रिया में प्रत्येक बिंदु पर उपभोक्ताओं के दिमाग में क्या चल रहा है.....??अक्सर हम कंपनियों की लालची चालों में फंसकर जरूरत न होने पर भी ज्यादा खरीदारी कर लेते हैं। हमारे क्रय निर्णयों में डर हमारा प्राथमिक प्रेरक है। कंपनियां इस डर का भरपूर फायदा उठाती हैं. हमें डर होता है कि कहीं हम कोई अच्छा ऑफर चूक गये तो...? इसीलिए हम अनावश्यक चीजें जरूरत से ज्यादा खरीद लेते हैं.... 

खरीदने के निर्णय प्रक्रिया में सामाजिक असर की प्रमुख भूमिका:

 हमारी खरीदारी के निर्णय प्रक्रिया में सामाजिक प्रभाव एक प्रमुख भूमिका निभाता है। कंपनियां इसका इस्तेमाल करती हैं. जैसे, जब हम कोई उपहार खरीदने जाते हैं तो सोचते हैं कि महंगा उपहार देंगे तो महत्व बढ़ जाएगा। सामान्य चीजों में भी ब्रांड ढूंढ लेते है हमें अलग-अलग ऑफर्स के जरिए बताया जाता है कि इस सामान को अभी खरीदने पर हम कितने रुपये बचा रहे हैं। जिससे अन्य चीजें भी खरीदी जा सकती हैं,जिसकी हमें वास्तव में जरूरत नही होती है....  

पुरानी यादें, पुरानी घटनाएं मूलतः एक भावनात्मक असर है । हम बचपन की यादों से जुड़ी चीजों और पुरानी घटनाओं से जुड़ी कुछ खरीदारीयां करके भी खुश होते हैं। कंपनियाँ इसका प्रयोग विज्ञापनों में करती हैं। और हम अपनी भावनाओं को शॉपिंग में बदल कर अनावश्यक चीजें खरीद लेते हैं.... 

संक्षेप में कहें तो मनुष्य को समझने के बाद एडवर्टाईज आदि के माध्यम से उसके brain को manipulate किया जाता है जैसे कि आप टीवी पर ऐड देखे होंगे कि दूल्हा रेमंड सूट पहना हुआ है तो " the complete man कम्पलिट " हम समाज, दोस्तों मे मात्र अपनी इमेज बनाने के लिए ब्रांडेड वस्तु खरीद लेते हैं,जबकि इसकी जरूरत तो नहीं होती है .... इस तरह ग्राहकों  का mind conditioning... किया जाता है। यहाँ उद्देश्य मनुष्य के needs को पूरा करना नहीं अपितु wants को बढ़ाना होता है। लोभ,लालच, डर,स्पर्धा पैदा किया जाता है..... 

क्या आप अब भी यह मानते हैं कि आप जो चुनते हैं अथवा करते हैं, वह आपका स्वतंत्र चुनाव है....? ऐसे में प्रश्न उठता है कि व्यक्ति स्वयं के जीवन का मालिक है, या व्यवस्था का दास....? 

( Individual masters of life or slaves to the system..?)

मार्क्स कहते है कि : " जैसे-जैसे जीवन में वस्तुएं अहम होती जाएंगी, इंसानियत की कीमत कम होती जायेगी। 

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