वैराग्य का अहंकार
वैराग्य का अहंकार : •••••••••••••••••••
अहंकार सर्वथा सिर्फ प्राप्ति का ही नहीं होता कि मेरे पास ये है, मेरे पास वो है। मेरा घर इतना बड़ा है मेरे पास इतनी बड़ी गाड़ी है। मेरा जीवनस्तर बाकियों से बहुत ऊंचा है। मैं रईसी के साथ जीता हूँ वग़ैरह वग़ैरह......
अगर हम कुछ त्याग रहे और उस त्याग का भी अहंकार मन में उपज रहा तो ये अच्छा नहीं क्योंकि इससे उस त्याग का भाव कम होता है। शिवपुराण में शिव जी ने पार्वती माता को तंत्र सूत्र विषय पर एक बात कही थी वह ये कि पाने का अहंकार तो होता है पर जब कोई कुछ छोड़ता है तो उसका भी अहंकार मन में आ जाता है।
किसी विशेष धर्मिक अवसर पर मंदिरों और धर्मिक स्थलों पर भारी भीड़ दिखती है। जिसमें से आधी भीड़ परमात्मा की होती है अर्थात जो सिर्फ़ ईष्ट के लिए आते हैं। जबकि इसके विपरीत आधी भीड़ प्रचार की होती है। जैसे कि इस बार कुम्भ में हुआ। 70 % लोग सिर्फ इसलिए गए कि दूसरों को दिखाना है कि वह कितने धर्मिक है। या फ़िर वो जा रहा तो हम भी जाते हैं। समाज में अपने धर्मिक होने और ईश्वर में विश्वास का ठप्पा लगाने के लिए जाना है। इस तरह धर्म की पालना का दिखावा बावलेपन की निशानी है।
इसका एक दूसरा उदाहरण भी देखिए। हम सभी हर trimester अपनी health का रूटीन check up कराते हैं। जिसमें कुछ ना कुछ ऊपर निचे आता ही रहता है। आजकल सामान्यतः लोगों की बातचीत में शक्कर छोड़ने, नमक छोड़ने , तेल घी छोड़ने की बात बड़े गर्व से कही जाती है। इस त्याग को महिमामण्डित इसलिए किया जाता है कि कोई उनकी सेहत और उंगली ना उठा सके।
यही त्याग और वैराग्य का अहंकार है। जिसमें व्यक्ति उस चीज़ के लिए अहंकारी हो जाता है जो अब उसके किसी काम की नहीं रही। जिसे वह त्याग चुका है। और जब उसे त्याग ही चुका है तो उसके लिए कोई भी भाव रखना गलत है। त्यागना अर्थात पूरी तरह सम्बंध खत्म कर देना। अगर मन में उसे त्यागने का अहंकार है तब तो सदैव उस चीज़ या बात का स्मरण विचारों में मौजूद है। ऐसे में उस त्याग का पूरा प्रतिफल मिलना नामुमकिन है।
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