धर्म या मज़हब अर्थात मन की दृढ़ता
धर्म या मज़हब अर्थात मन की दृढ़ता :
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समग्र संसार...धर्म या मजहब के अनुशासन, नियम और विधि-विधान को स्वीकार करके अपने धर्म के बताए नैतिक नियमों और आचरणों का पालन करता है । धर्म और मजहब कभी भी एक दूसरे के विरोधी नहीं रहे हैं । लेकिन जब धर्म की रक्षा हिन्दु और मजहब की रक्षा मुसलमान हिंसा के द्वारा करने लगते हैं । तब यह रक्षा का भाव करुणा का नाश करते हुए दुधमुंहे बच्चों को गोद से छीनकर मौत के घाट उतारे जाने तक विभत्स हो जाता है। दूसरी धर्म या मज़हब की औरतों के साथ घृणा रखते हुए बलात्कार किया जाता है । तो जरा सोचिए कि कौन से धर्म या मजहब में इस तरह उसकी रक्षा होती है ? ? यह विचारणीय तथ्य भी है और सत्य भी है....
जब बस्तियों में हिंसा फैलाई जाती है और जो उस समय गोलियां चलती है। उसमें उस विचार को मारा जाता है जो कल्याण कामना से संसार में ईश्वर या खुदा की रहमत बन कर अहिंसा के भाव में पिरोया गया है। जितने भी मठाधीश हैं ,जितने भी जगद्गुरु हैं , जितने भी खुदा का रास्ता बताने वाले मौलवी ,पोप या पादरी है वे कोई भी धर्म का असल सत्य नहीं बताते । वे बस अपनी सत्ता की रक्षा करते हैं ! धर्म और मजहब की रक्षा का भ्रम फैलाते हैं और भोले भाले लोगों के विश्वास भरोसे ,आस्था का इस्तेमाल करके हिंसा रचते हैं ।
धर्म हो या मजहब इतना नाजुक और नरम नहीं जो कि किसी के हानि पहुंचाने से खतरे में आ जाये । इतना कमजोर भी नहीं की किसी के छूने या स्पर्श से टूट जाये। धर्म और मजहब आदमी को ज्ञान का मार्ग समझाने के लिए है । यह आदमी से आदमी के बीच नफरत और हिंसा बढ़ाने के लिए नहीं है । ईश्वर या खुदा इतना कमजोर विचार नहीं है ! आदमी के मन में यदि आस्था है तो फिर कितनी ही बाधाएं आये वह उससे डिगता नहीं । धर्म और मजहब मन की दृढ़ता का विचार है । धर्म ,मजहब वह ज्ञान की धारा है जो आत्मा को जगाती हैं । करुणा के बंद कपाट खोलती है । संवेदना के साथ जीना सिखाती है । परस्पर प्रेम करना और परपीड़ा के बोध को पैदा करती है ।
धर्म का बाह़य रुप कर्म काण्ड और प्रदर्शन मुखी है जिसे पण्डे ,पुजारी महन्त, मठाधीश, मौलवी, पोप और पादरियों की जरुरत पड़ती है । जिन्हें मन्दिर, मठ, मस्जिद, गिरजों की प्रतिष्ठा करनी पड़ती है । यह स्थापना ही इन सारे खतरों और हिंसा का वाहक होता है । असल में खतरे में ये प्रतिष्ठान ही होते हैं । क्या जरुरत है चढ़ावों और जकातों की ? ? यह सब धर्म का व्यापार है । सोने - चांदी, हीरे - जवाहरात के आभूषण भगवान को नहीं वरन पण्डो की जरुरत है ।
धर्म और मजहब यदि इतना ही कमजोर है तो फिर उसकी मनुष्य को जरुरत ही क्या यह भी विचार किया जाना चाहिए । आज मनुष्य में शिक्षा का स्तर सुधरता जा रहा है लेकिन फिर भी धर्म और मजहब के लिए जान लेने - देने का चलन बरकरार है । धर्म और मजहब ज्ञान की संस्कृति है । वह आत्मा और मन का प्रक्षालन करती है । फिर धर्म और मजहब के नाम पर इस तरह का अज्ञान ,इस तरह की मार- काट ? इस तरह की असभ्यता ? यह शिक्षा है या उन्माद ? विचार शून्य आचरण ? धर्म और मजहब मनुष्य के विकारों को ज्ञान के द्वारा खत्म करता है लेकिन यहां धर्म और मजहब के नाम पर फैलाई जाती नफरत ,हिसा,द्वेष, भेदभाव ,का आचरण प्रश्न खड़े करता है । धर्म यदि इतना ही कमजोर है तो फिर आदमी इसका पालन और पूजा अर्चन क्यों करे ?
धर्म और मजहब मनुष्य के आचरण को ,विचार को , साफ - सुथरा बनाने के लिए है न कि विकृत और कुण्ठित करने के लिए ? किस धर्म या मजहब की सीख और धारणा है वह विचार है जो धर्म - मजहब रक्षकों को हिंसक अनाचार के पाठ और सबक सिखाए..? ? धर्म और मजहब परपीड़ा ,और करुणा का बोध जगाने के लिए धारण किया जाने वाला विचार है । समाज को अपने भ्रमों पर एक बार विचार करना चाहिए तब ही ईश्वर और खुदा की सही पहचान दुनिया के समक्ष आयेगी । धर्म और मजहब मनुष्य की दृढ़ता के लिए है वह कमजोर नहीं कि मनुष्यों की रक्षा की उसे जरुरत पड़े । मनुष्य और धर्म - मजहब का अटूट संबंध है ।वह तब तक कायम है जब तक मनुष्य का अस्तित्व और अस्मिता धरती पर कायम है ।राजनैतिक भुलावो और भ्रमों से धर्म और मजहब को मुक्त करना ही वास्तविक धर्म और मजहब का पालन है ।
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