इंसान और धर्म का रिश्ता निजी है

इंसान और धर्म का रिश्ता निजी है :  ••••••••••••••••••••••••••••••

इंसान और ईश्वर के बीच का रिश्ता नितांत निजी होता है ।  मैं मेरे ईश को किस रूप में अपने मन में बैठाती हुए मेरी परिकल्पना है। आप उससे रिश्ता भी कैसे चला रहे ये भी अपनी स्वयं की रुचि पर निर्भर करता है। और इससे किसी अन्य को कोई मतलब नहीं होना चाहिए।  

मेरा धर्म क्या है......?

मैं ईश्वर से खुद को कैसे जोड़ता हूं.....?

मैं अपने ईश्वर को कैसा देखता हूँ....?

ईश्वर से मेरा रिश्ता कैसा है.....?

 इन चीज़ों से किसी और को कोई मतलब नहीं होना चाहिए। आप अपने ईश्वर के साथ अपना रिश्ता चुनने और अपने तरीके से बनाने के लिए पूर्णतया स्वतंत्र हैं।

 लेकिन राजनीतिक दलों एवं राजनेताओं ने सब-कुछ उलट-पुलट कर रखा है। और हम भी उसी बहाव में बहते चले जा रहे हैं। धर्म की आड़ में हमारी स्वतंत्रता कोई क्यों छीने ...!!

सांप्रदायिकता ने पूरी नग्नता से अपना सिर उठा लिया है। धार्मिक स्वतंत्रता की आकांक्षा प्रत्येक आबादी में होती है। 

मेहनतकश वर्ग को अपने रोजमर्रा के जीवन को जीने के लिए जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उनमें से किसी एक का भी यह सांप्रदायिक संगठन कोई समाधान बतला सकते हैं क्या...? ?

 क्या इस तरह के संगठनों के पास बेरोजगारी, गरीबी, निरक्षरता, का कोई जवाब है?

इन समस्याओं पर कभी कोई दिशा निर्देश दे सकते हैं? शायद नहीं.!

मेरे विचार में धर्म निजी विषय वस्तु है! धर्म की आड़ लेकर हमारी , हमारे ईश्वर के प्रति भावनाओं से जुड़ी स्वतंत्रता को कोई छीन नहीं सकता है। साथ ही हमारे खान-पान और पहनावे को तो बिल्कुल नहीं।

ये हमारी ही बेवकूफियों का नतीजा है कि हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उड़ते हुए गुब्बारे को इतना हल्का होने दे रहे कि कोई भी राजनीतिक दल आकर उसमें अपने अपने मुद्दों की सुई चुभा कर उसकी हवा निकालते रहता है। ताकि हम उड़ें नहीं जमीन पर रहें।

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