Fast food और Hospitals
Fast food और Hospitals ••••••••••••••••••••••••••••
पुराने समय में घर का शुद्ध खाना ही सबसे अच्छा लगता था। गृहणियां अधिकतर चीजें घर पर ही बनाती थी। स्वाद भले ही बाजार जैसा ना होता हो पर शुद्धता और भावना से ओतप्रोत रहता था। उस पुराने समय में फास्ट फूड की दुकान या कॉर्नर बहुत कम दिखते थे। लोग बाहर का खाना पसंद नहीं करते थे। पर आज आप हर कदम पर गोलगप्पे, मॉमोज, फ्रेंच फ्राईज की ठेली देखने को मिल जायेगी....और साथ ही ये सब निरंतर खाते रहने के परिणामस्वरूप अब हॉस्पिटल भी खूब दिखने को मिल जायेगे छोटे ही नहीं बड़े बड़े भी...... साथ ही पैथोलॉजी भी खूब... कारण ? ?
कारण तो हम और आप बखूबी जानने हैं..... आज ये जो खाने पीने की आदतों में बदलाव आये हैं वहीं हॉस्पिटल के जनक भी हैं..... आप कभी स्ट्रीट फूड वालों के ठेले में बन रहे भोज्य पदार्थों की वास्विकता देखगें तो समझ आएगा कि हम क्या गंदा खा रहे। पर हमें तो उसकी खुशबू और ऊपरी प्रस्तुति देखकर उसे खाने का मन करता है। कभी अंदर की स्थिति देखेंगे तो पता चलेगा कि तेल कितना सड़ा हुआ है। सब्जियां ढंग से धोई नहीं गयी या उपयोग सामग्री कितनी घाटियां क्वालिटी की है। पर ये तो उन ठेले खोमचों की कहानी है जो खुले में अपना माल बेच रहे हैं वह तो साक्षात दिख जाता हैं.......
बंद कहानी तो रेस्टोरेंट की हैं जहां पता नहीं फ़्रिज में कितने दिन तक भोज्य पदार्थों भंडारण रहता हैं, कोई चीज़ कब की हो और कब इस्तेमाल की जा रही हो, कितनी गंदगी में पड़ी हो..... ये सब कई बार जब छापे पड़ते हैं तो कहानी उजागर होती हैं कि जिन्हें हम साफ़ शुद्ध के लिय पहचानते हैं असल में उनकी कितनी उजली कहानी हैं।
वैसे भी ये बाहरी खाने पीने की चीजें ही कई मेडिकल स्टोर, डॉक्टर और हॉस्पिटल को चलने का कारण बन रही हैं....अब तो ये फ़ास्ट फ़ूड चलन शहरो की सडकों के किनारे ही नहीं बल्कि गांवो के चौराहे और गलियों तक फैल चुका है। यही विकास का पैमाना बन चुका है कि कौन कितना बाहर का खा सकता है।
याद कीजिये जब पहली बार हैं मैगी आई थी तो सबने उसे सर माथे इसलिए बिठाया की दो मिनट में नूडल्स तैयार , स्वाद भी जोरदार। पर बड़े बुजुर्गों ने इसे नहीं पसन्द किया ना ही खाया। इंस्टेंट के चक्कर में हम बहुत कुछ ऐसा खाने लगे हैं जिसे पेट सही तरीके से स्वीकार नहीं करता।
आज की स्थिति ये है कि अमूमन शनिवार की रात तो फूड कॉर्नर पर भीड़ देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आज का युवा चटोरा ही नहीं बेहद काम चोर भी हैं....... रोड पर घूमते zomato, swiggy को देखकर तो यही लगता हैं कि खुद कुछ बनाने की अपेक्षा बाज़ार से बना बनाया मंगा कर खाना ज्यादा आरामदायक लगता है। ये सोचे बिना की वह बनाया किस तरह गया होगा ? अब ये ट्रेंड देखकर तो यही लग रहा कि कुछ दिन बाद घर पर बिल्कुल भी खाना बनना बंद हो जाएगा। बस मंगाओ और खाओ।
हमारी पीढ़ी इस दुनिया की वह आखिरी पीढ़ी है जो घर के खाने को महत्व देती है। आज भी तीज त्यौहार पर घर पर पकवान बनते है। और स्वाद बदलने हेतू जो भी कुछ अलग खाने की मंशा होए तो वह भी घर पर ही बनाने की कोशिश की जाती है।
शायद अभी नई पीढ़ी इसका दुर्प्रभाव नहीं समझ पा रही उन्हें सिर्फ सुविधा दिख रही। पर एक पीढ़ी की दुर्दशा देखकर आने वाली पीढियां जागेगी।
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