राजनीति और आकांक्षाएं
राजनीति और आकांक्षाएं : ••••••••••••••••••••••••••
मैं पॉलिटिकल पर्सन नही हूँ। एक साधारण, कस्बे-शहर में रहने वाली एक साधारण भारतीय। मेरे इर्द गिर्द के एक सोसायटी है, छोटी सी....और इस सोसायटी से मेरी उम्मीदें है, आकांक्षाऐं है।
यह कि ये सोसायटी सुरक्षित हो, progressive हो, हंसती और मुस्कुराती हुई हो। इसमे अपराध न हो, भेदभाव न हो, तनाव न हो। यह स्थिर नही हो सकती, सो बदलाव धीरे धीरे, सकारात्मक और pridictible हों। जिनसे मैं तारतम्य बिठा सकूं और अपने आने वाले 10 सालों की योजनाऐं बना सकूं।
इसके अपने प्रतिमान हों, यह खुद से डेवलप हो। खाने, पहनने, मिलने, मिलाने, घूमने, चलने, बोलने हंसने की आजादी हो। जो भुगतान करूँ उसकी सुविधा मिले, जिसका भुगतान मिले वो सेवा मैं प्रेम से दूं। मुझे सम्मान मिले,और बदले में मैं सम्मान दूं।
जब मेरे शहर की यह छोटी सी सोसायटी, और आसपास और दूर दराज के समाज से मिलती है, तब देश बनता है। भौगोलिक दूरियों के अनुसार, इन समाजों के चिन्ह, परम्परायें और पहचान भले ही अलग अलग हो, मगर किसी भी समाज मे रह रहे हर व्यक्ति की आकांक्षा बस इतनी ही है।
अगर समाजों के ये रंगीन समुच्चय ही देश हैं। तो देश की आकांक्षाओं और समाज की आकांक्षाओं में कोई फर्क कैसे हो सकता है।
मानव सभ्यता की सत्तर हजार साल की कहानी में हम सत्तर सेकेंड के बुलबुले हैं। इतिहास में तमाम तरह की परम्पराओं, चिन्हों, धर्मों, राष्ट्रीयताओं से बनी सोसायटी बनी हैं। कोई भी स्थायी नही रही , न हो सकती है। स्थायी तो वो आकांक्षाएं है, जो मेरी है, और जो 2000 साल पहले किसी रोमन या हड़प्पा के नागरिक की भी होंगी।
इतिहास उठाकर देखिये। उथल पुथल के दौर में उन समाजों को, कुछ पीढ़ियों को दुख, कष्ट, टार्चर, मौत और भयावह अनुभवों से गुजरना पड़ा होगा। कारण - किसी की सत्ता आ जाती है, कुछ समय टिकती है और फिर से एक नए किस्म का समाज बनाने के नाम पर अपने विचारधारा की प्रक्रिया को दोहराती है। यह अंतहीन है, ये अर्थ हीन है । मगर एकाएक समाज को अप्राकृतिक रूप से बदलने की कोशिश, सत्ता का टूलकिट है। वह सोसायटी में एकाएक भंवर पैदा करती है, तूफान उठाती है। धर्म, जाति, एथनिसिटी या किसी तात्कालिक मुद्दे पर समाज का ताना बाना उलट पुलट करती है।
मैं पॉलिटिकल पर्सन नही हूँ। कस्बे-शहर में रहने वाली एक साधारण भारतीय, इर्द गिर्द के एक सोसायटी है, छोटी सी..मेरी उम्मीद, आकांक्षा.. एक सुरक्षित सोसायटी, प्रोग्रेसिव, हंसती, मुस्कुराती हुई, अपराध-भेदभाव रहित, तनाव रहित, बदलाव धीरे धीरे हो, जो सकारात्मक और प्रिडिक्टिबल भी हो।
पर जब भय, नफरत, शंका, दादागिरी, निर्लज्जता, क्रूरता, अट्टहास, ललकार, चीखपुकार और छाती ठोकनेवाले शोहदों से भरा यह समाज देखना पड़ता है तो, वर्तमान और भविष्य का खाका साफ दिखाई देता है। इसलिए राजनीति जिंदगी का एक महज हिस्सा बने रहना चाहिए। उसे जिंदगी नहीं बनाना चाहिए। क्योंकि जिन पोलिटिकल पार्टियों के पीछे हम अपनी जिंदगी व्यर्थ करते हैं। उनके लिए हम बस एक निशान भर हैं।
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