कर्म और स्वभाव का तालमेल
कर्म और स्वभाव का तालमेल : ●●●●●●●●●●●●●●●
हम अपना जीवन नियत कर्मों के हिसाब से चलाते हैं। कर्म तय होते हैं दुनियादारी के नियमों, अपनी जरूरत और पसन्द से। कर्म या प्रयास में जब जब सफलता मिलती है इंसान अहंकारी हो जाता है। उसे अपनी श्रेष्ठता का आभास होने लगता है।
इस का दूसरा पहलू भी देखना चाहिए कि हमारे सामने भोजन रखा है। हमें उसे उठाना पड़ता है मुहं में डालना पड़ता है चबाना पड़ता है। अर्थात हमने कर्म तो किया पर उसके साथ उसे स्वभाव से जोड़ा। जब तक हम स्वाभाविक उसे चबाएंगे नहीं उससे ऊर्जा कैसे पाएंगे....? ?
हमें कर्म करना है परंतु उसके साथ स्वभाव को जोड़कर चलना है। तभी वह कर्म फलीभूत होगा। जैसा कि लेख के शुरुआत में बताया कर्म तय होता है दुनियादारी के नियमों से , परंतु स्वभाव तय होता है परमात्मा पर भरोसे से.......
इसलिए जब भी कोई कर्म किया जाए, यह बात दिमाग में बिठा ली जाए कि करना हमें है लेकिन ऊपर कोई ऐसी शक्ति है जो यह हमसे करवा रही है और उसके परिणाम भी वही तय करेगी। परिणाम में समय की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
ज़रूरी नहीं कि हर कार्य में सफ़लता मिल ही जाए। लेकिन यदि हम कर्म और स्वभाव अर्थात विश्वास को जोड़कर कार्य करेंगे तो किसी भी असफलता में हम निराश नहीं होंगे, थकेंगे नहीं, हताश नहीं होंगे। क्योंकि असफलता पर वही लोग थकते हैं जिनका मैं या अहम प्रबल होता है। जो कर्म में अपनी उपस्थिति के अहंकार को जोड़कर परिणाम की अपेक्षा रखते हैं।
लेकिन जो लोग कर्म में इस स्वभाव को लेकर चलते है कि सब ऊपरवाले के हाथ है वह परिणाम से विचलित नहीं होते। अपितु पुनः प्रयास के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं। लेख का सार यही है कि कर्म करना हमारे हाथ में है। हम करते ही हैं। परंतु उस कर्म में हमें स्वभाव या विश्वास को भी जोड़ना होगा। जिससे हम सदैव अच्छे के लिए प्रयत्नशील रहें।
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