नासमझ
नासमझ :
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मैं भी उन्हीं नासमझों में से एक हूँ जो अच्छी तरह जानते हैं कि कब, कहाँ और कितनी बार हमें मूर्ख बनाया गया है। कितनी ही बार अपना बन कर हमें ठगा गया है। हर मीठे लफ़्ज़ में छुपा स्वार्थ, हर मुस्कान के पीछे एक मंशा और हर वादे में बंधी अधूरी नीयत सब कुछ साफ़ नज़र आता है हमें । हर किसी मनुष्य का इरादा धीरे धीरे पता चल ही जाता है। चाहे बाहर से कोई कितना भी अच्छा होने का दिखावा करते रहे पर नियत दिख ही जाती है।
फिर भी हम चुप रहते हैं क्योंकि सच कहना अक्सर रिश्तों की नाजुक डोर को तोड़ देता है और हर कान सच सुनने का साहस भी नहीं रखता। मेरी यह चुप्पी कमजोरी नहीं, बल्कि मेरा द्वारा किया एक चुनाव है अपने दिल की शांति को बचाए रखने का,उन बेकार की बहसों और तानों से दूर रहने का... जो सिर्फ़ ज़ख्म देकर फिर उन्हें गहरे करते हैं। पर हम ये समझ नहीं पाए कि जिसको रिश्ते की कदर हैं ही नहीं तो उसे जबरन बांधने का प्रयास ही व्यर्थ हैं। मेरी मिठास आख़िर कब तक रिश्तों के खारेपन को मृदु करती रहेगी।
लेकिन जानते हुए भी अनजान बने रहना,कभी-कभी सबसे बड़ी समझदारी होती है क्योंकि हर धोखे का जवाब शब्दों से नहीं दिया जाता कुछ जवाब बस नज़रों के सन्नाटे और चुप्पी में छिपे होते हैं और मैं उस सन्नाटे में अपनी गरिमा, अपना सुकून और अपनी ठंडी ताक़त को संभाले रखती हूँ ताकि जिसे लगा कि उसने मुझे मात दे दी वह कभी जान न पाए कि असली जीत तो मेरी प्रतिक्रिया मे ही हैं। और मेरी प्रतिक्रिया आप की क्रिया पर ही निर्भर करती हैं ये आपका वहम है।
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