एक सत्य
एक सत्य....... !!
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इस सत्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि जैसे जैसे आगे पीढियां खिसकती हैं उनमे बदलाव और प्रगति होती रहती है। सभी अपने बच्चों और स्वयं के जीवन को एक साथ रखकर ये देखें और सोचें तो ये अंतर स्पष्ट दिखने लगेगा। आप सब ने कभी ये सोचा है कि क्या ये वजह है जिस के बिनाह पर हमे ,आप को पिछड़ा , गँवार और बिना जानकारी वाला समझा जाये ? ये आज कल के बच्चों की फितरत है। जो थोड़ा बहुत भी नई जानकारियों को ना समझ पाने पर अपने बड़ों को 1960 के जमाने का बता देते हैं। ऐसा तो नहीं कि हमारी पीढ़ी के समय बदलाव नहीं होते थे पर उन बदलावों को स्वीकार करने की इच्छा अपनी अपनी व्यक्तिगत होती थी। अर्थात कोई बाध्यता नहीं होती थी। जो अपनी पुरानी परंपराओं और जीवन शैली के संग जीना चाहता था। वो उसी तरह जीता था। और जिसे नए परिवेश में ढल कर जीने की इच्छा होती वो उसी तरह के इंतजामात करता था।
पर आज हमेशा सबसे आगे दिखने की होड़ में बदलावों को आयँ बायँ कैसे भी स्वीकार कर लिया जाता है। भले ही वह खुद को सूट करते हो या नहीं। ये होड़ उनका मानसिक सुकून और शांति भी छीन रही है। फिर भी वो इसी में जीने को आधुनिकता और विकास के साथ चलना कहते हैं।
हमारे बचपन में मोबाइल तो था ही नहीं बस काले रंग का एक बड़ा टेलीफोन हुआ करता था जिस पर एक से शुन्य तक नम्बर लिखे रहते थे उन्हें घूमा कर नंबर डायल करना पड़ता था। गाड़ी भी अम्बेसडर हुआ करती थी। बड़ी और मजबूत। उस समय सफ़ेद और काला टेलीविज़न होना ही एक बड़ी बात हुआ करती थी मुझे आज भी याद है कि उस समय टेलीविज़न के कई कार्यक्रम जबान पर रटे रहते थे जिनके आने वाले समय में सभी काम निपटा कर बैठा जाता था ताकि आराम से कार्यक्रम का मजा लिया जा सके। ऐसा नहीं कि उस समय हमने इन सुविधाओं का लुत्फ़ नहीं उठाया पर हम कभी भी उनके आदी नहीं बने और ना ही उन्हें स्टेटस सिंबल की तरह दिखाया। क्योंकि वो सिर्फ एक सुविधा भर थे। उनके बिना जिंदगी ठहरती नहीं थी। बाहर की दुनिया उन सुविधाओं से कहीं ज्यादा खूबसूरत थी।
मुझे एक और बात याद आ रही है कि उस समय एक बिनाका गीत माला का कार्यक्रम रेडियो पर आता था जिसे एक मशहूर एंकर अमीन सायानी जी प्रस्तुत करते थे वह हमारी पसदं में शामिल एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम था। जिसे हम सुनना कभी भी नहीं भूलते थे। ये सारी पुरानी यादों को मैं इस लिए दोहरा रही हूँ कि हमने उन लम्हों को जिया जरूर है पर सिर्फ मनोरंजन और सुविधा के तौर पर न कि उन्हें जीवन मान कर।
आज अभिभावक और बच्चों में एक तनातनी हमेशा रहती हैं कि अभिभावक अपने बड़े होने के नाते उन्हें कुछ सीख देना चाहते हैं और बच्चे हमेशा ये कटाक्ष करते हैं कि आप अपनी सीख अपने पास रखिये। इस मामले में हम आप से ज्यादा जानते हैं। भले ही समझते न हो पर सब कुछ जानने का तो दावा करते ही हैं। ऐसे में वाकयुद्ध या अबोला का दौर चलने लगता है। क्यों आज कल की बच्चों को ये लगने लगा हैं कि उनके अभिभावक उनसे कम और सीमित जानकारी रखते हैं। ऐसा नहीं कि हम कंप्यूटर नहीं जानते ,मोबाइल नहीं जानते। पर एक चीज जो हमें इन सब के स्वछन्द प्रयोग से रोकती है वह है इनके बिना वजह ख़राब हो जाने का डर या किसी भी तरह से परेशानी में पड़ जाने का डर। इस की एक वजह ये भी है कि आज अपनी गृहस्थी में धन की कीमत हम समझते है। बिना वजह चीज बिगड़ जाने पर ठीक कराने के खर्च की वजह से हम कोई भी नया कदम उठाने या कोई नया प्रयोग करने के लिए सौ बार सोचतें हैं। जबकि इन्हें पता है कि अगर बिगड़ भी गया तो अभिभावक नया ला देंगे या उसे ठीक करा देंगे। यही डर हमें इनसे पीछे धकेल रहा है और इन्हें आगे ले जा रहा है और धीरे धीरे इनके सामने हम पिछड़ेपन की श्रेणी में आते जा रहें है। हालाँकि ये गलत है पर आज का सत्य यही है और इसे अब मन स्वीकार भी कर रहा की हम अपनी जी चुकी जिंदगी को समेटे रखने के चक्कर में पुराने साबित किये जा रहे।
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