जिंदगी की कशमकश
जिंदगी की कशमकश :
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क्यों एक कशमकश सी मची है अंदर कि
सब कुछ होने के बाद भी मैं कैसे इतनी अकेली हूँ......
होने के सबके साथ भी क्यों अबूझ पहेली हूँ !
ये कौन सी भूख है जो अंदर से मुझे खाये जा रही
किस चीज़ की चाहत है जो मुझे समझ नहीं आ रही
ये मन इतना बैचैन कैसे है सबके पास बैठ के भी
ये इतने सवाल कैसे हैं बिन बात के भी....
ये कमबख्त मन मेरा शांत क्यों नहीं हो रहा है
मैं खुश हूं पर कुछ है जो अंदर से रो रहा है
जवाब जो चाहिए मुझे पर सवाल भी ढंग से नहीं मुझे पता है
मैं बिखरी हूँ बिस्तर पर बैचैन, मेरा चैन ना जाने कहाँ लापता है
मेरे अंदर एक आवाज उठा रही जो कह रही कि
बीच सड़क पर जाकर चिल्ला ले, रो ले
और पाया जो भी है सब कुछ खो दे...
मत कर कोशिश आज बस भीग ले बारिश में
थोड़ी ठंड पड़े ,तमाम जलती हुई ख्वाहिश में
पर ये करने पर भी तो चैन नहीं मिलता, वक्त नहीं मिलता
कैसे समझाऊं दुनिया को
लब्ज नहीं मिलते शब्द नहीं मिलता
मेरे जेहन को खाए जा रही है ये बात
सबके होते हुए भी क्यों मैं रही भाग
क्यों नहीं मन करता कि रहूं किसी के साथ
मुझे क्यों चुभता है ये ख्याल हर रोज
टुकड़ों में आता है क्यों ये सवाल रोज
मुझे दो पल कोई अकेला क्यों नहीं छोड़ता...? ?
हर इंसान मुझसे क्यों नज़दीकी बनाये है
हर शख्स मुझसे इतनी उम्मीदें क्यों लगाए है
अरे जो खुद ही गुम है वो तुम्हें कैसे ढूंढेगी..? ?
जब उसे अंधेरा चाहिए होगा और तुम उसे सूरज लेकर दोगे
तो निश्चय ही आंखें मूंदेगी..!!
तो छोड़ दो उसे उसके कमरे में अकेले उसके जज्बात के साथ
माना तुम्हें फिक्र है पर मत बोलो कुछ
कुछ दिन बैठने दो उसे उसकी आवाज़ के साथ...!
सुनेगी खुद को तभी तो पता चलेगा की सवाल क्या-क्या है ?
जो सब पूछते है कि क्या सोच रही हो
जब बैठेगी तभी तो जानेगी ख्याल क्या क्या है ?
तो बैठने दो अकेले उसे अपनी जैसी भीड़ में
जहां सबका ही दिमाग खराब है
सभी सवालों में गुम हैं नहीं किसी के पास जवाब है
मत करो कोशिश कुछ करने की आज
मत करो गौर उसके सवालों पर आज
एक काम करो जाने दो उसके हाल पर आज...!!
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